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लिया जाये तो सम्यक्-चारित्र-सम्पन्नता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। उस का
आधार जितना मजबूत होगा, साधना का भवन भी उतना ही ऊंचा और भव्य होगा। मज़बूत आधार पर निर्मित इस ऊंचे भवन के माध्यम से मुक्ति-शिखर तक पहुंचा जा सकेगा। यही आधार है-चरण-विधि।
निवृत्ति और प्रवृत्ति, एक ही साधना-रूपी-सिक्के के दो पक्ष हैं। मन, वचन और काया की जब असंयम से निवृत्ति होती है तो उनकी संयम में स्वयमेव प्रवृत्ति होती है। हिंसा के त्याग से अहिंसा अपने आप आती है। क्रोध छूट जाये तो क्षमा अपने आप साकार होने लगती है। सम्यक् निवृत्ति और सम्यक् प्रवृत्ति मूलतः अलग-अलग नहीं हैं। दोनों का अलग-अलग वर्णन करने का अभिप्राय वस्तुतः सम्यक् चारित्र का दोनों दृष्टियों से वर्णन करना है। साधना का सम्पूर्णता में वर्णन करना है। साथ-साथ साधक को यह अवसर प्रदान करना है कि वह जिस दृष्टिकोण से चाहे, उसी से सम्यक् चारित्र को समझना प्रारम्भ कर सके। सम्यक् साधना का जो पक्ष उसे स्वभाव के अपेक्षाकृत अधिक अनुकूल लगे उसी को धारण कर वह सम्यक्त्व के मार्ग पर अग्रसर हो सके। वह चाहे तो सम्यक् निवृत्ति के मार्ग से सम्यक् प्रवृत्ति तक पहुंचे और चाहे तो सम्यक् प्रवृत्ति के माध्यम से सम्यक् निवृत्ति तक पहुंचे। मार्ग या माध्यम कोई भी हो, महत्त्वपूर्ण है पहुंचना।
सम्यक् प्रवृत्ति और सम्यक् निवृत्ति का योग जिस जीवन में संभव हो गया उसने सम्यक् चारित्र की आत्म-सम्पदा पा ली। फिर उसकी आत्मा संसार में नहीं भटकी। फिर वह मुक्ति की ओर बढ़ता ही चला गया। जिन-जिन राहों से होकर वह बढ़ा, उन सभी का सारगर्भित वर्णन इस अध्ययन में हुआ है। उन का ज्ञान बढ़ने से पूर्व भी साधक के लिए अपेक्षित है और बढ़ते हुए
भी।
यह ज्ञान ही वस्तुत: चरण-विधि का ज्ञान है। इस अध्ययन में निरूपित ज्ञान की एक और विशेषता यह है कि इसे प्राप्त करने के लिए.......पूर्णत: निर्धान्त रूप में प्राप्त करने के लिए अन्य आगमों की स्वाध्याय भी अपेक्षित है। कुछ गाथाओं में यह अपेक्षा प्रेरणा बन कर अंकित व उजागर हुई है। संख्यापरक रूप होने से स्वयं को कंठस्थ करने की सुविधा व आकर्षण प्रदान करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
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अध्ययन-३१
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