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आता है तथा (सुखानूभूति-रूप फल-भोग के द्वारा) वेदित किया जाता है, (फिर तीसरे समय में, स्थिति बन्ध व अनुभागबन्ध - दोनों के अभाव से वह) निर्जीर्ण (क्षीण-नष्ट) हो जाता है। (फलस्वरूप) भावी (चतुर्थ) समय में वह (कर्म या जीवात्मा) 'अकर्म' (कर्म से रहित/ कर्म रूप से मुक्त)
हो जाता है। (सू.७३) (केवली होने के) के अनन्तर (शेष) आयु (कर्म की नियत
मर्यादा) का निर्वाह कर उपभोग कर, अन्तर्मुहूर्त (दो घड़ी) प्रमाण अवशिष्ट आयु वाला (केवली) योग-निरोध (समस्त मानसिक, वाचिक व कायिक प्रवृत्तियों का सर्वथा अन्त करने के लिए प्रवृत्ति) करता हुआ ‘सूक्ष्म-क्रिया अप्रतिपाती' नामक (तृतीय) शुक्ल ध्यान को ध्याता हुआ, सर्वप्रथम मनोयोग को निरुद्ध करता है, (मनोयोग को) निरुद्ध कर वचन-योग को निरुद्ध करता है, (वचन-योग को) निरुद्ध कर श्वास-उच्छ्वास को निरुद्ध करता है, (उसे) निरुद्ध कर (१४वें गुणस्थान में पहुंचा हुआ वह) अनगार पांच हस्व अक्षरों (अ, इ, उ, ऋ,
) के उच्चारण : काल के समान काल (मात्र) तक 'समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति' (नामक चतुर्थ) शुक्ल ध्यान को ध्याता हुआ, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र- इन चार (अघाती) कर्म-प्रकृतियों को एक ही समय में एक साथ क्षीण कर देता
(सू.७४) (आठों कर्मों का क्षय कर चुकने की) इस (स्थिति) के पश्चात्,
औदारिक व कार्मण (व तैजस्) शरीरों को, समस्त त्याग-क्रियाओं के साथ (पूर्णतः व सदा के लिए) छोड़ कर, ऋजुश्रेणी (आकाश-प्रदेशों की सीधी पंक्ति से गति) का आश्रयण करता हुआ, (आत्मप्रदेश जितने आकाश-प्रदेशों को ही स्पर्श करता हुआ और अन्य आकाश प्रदेशों को या अन्तरालवर्ती आकाश-प्रदेशों को) स्पर्श किए बिना ही ऊर्ध्व-गमन करता हुआ, एक समय (मात्र) में अविग्रह (बिना मोड़ वाली) गति से वहाँ (लोकाग्र-स्थित सिद्ध-शिला पर)
अध्ययन-२६
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