________________
ToTa
(सू.७२) (प्रश्न-) भन्ते! 'प्रेय' (राग), द्वेष व मिथ्यादर्शन पर विजय प्राप्त कर लेने से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है?
(उत्तर-) राग, द्वेष व मिथ्यादर्शन पर विजय प्राप्त कर लेने से (जीव ) ज्ञान-दर्शन व चारित्र की आराधना में समुद्यत (कटिबद्ध, सतत उपयोग वाला) हो जाता है। (तब वह) आठ प्रकार के कर्मों (में अधिक दुर्भेद्य आत्मगुणघाती चतुर्विध कर्म) की गांठ के विमोचन (खोलने और उसके बन्धन से विमुक्ति) के लिए सर्वप्रथम यथाक्रम से (क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होता हुआ) अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म (की ग्रन्थि) का उद्घाटन या उद्घातन (विनाश) करता है। इसके पश्चात् पांच प्रकार के 'ज्ञानावरणीय', नौ प्रकार के 'दर्शनावरणीय' व पांच प्रकार के 'अन्तराय' इन तीनों ही विद्यमान कर्म-प्रकृतियों का एक ही समय में / एक साथ क्षय कर देता है । इसके पश्चात् (वह) अनुत्तर (श्रेष्ठतम) अनन्त, सम्पूर्ण (समस्त द्रव्य व उसके पर्यायों का ग्राहक) प्रतिपूर्ण (स्वपर पर्याय-युक्त) आवरण-रहित, (अज्ञानरूपी) अन्धकार से (सर्वथा) रहित, विशुद्ध, लोक-अलोक के प्रकाशक उत्तम ‘केवल' ज्ञान व ‘केवल' दर्शन को (स्वयं में) प्रकट करता है ।
जब तक वह 'सयोगी' (मन-वचन-काय के व्यापार से युक्त अवस्था में) रहता है, तब तक 'ईर्यापथिक' (कषाय-रहित व्यापार से अल्प समय के लिए बन्धने वाला) जो सुखस्पर्शी (सातावेदनीय, आत्म-प्रदेशों के लिए सुखकारी) तथा (मात्र) दो समय की स्थिति वाला ही होता है- का बन्ध करता है। (वह ईर्यापथिक कर्म) प्रथम समय में बंधता है, और दूसरे समय के वेदन में (उदय में) आता है, (किन्तु) तीसरे समय (तो) उसकी निर्जरा हो जाती है।
वह बद्ध (होने वाला कर्म क्रमशः) प्रथम समय में आत्म-प्रदेशों से स्पृष्ट होता है, (दूसरे समय में) उदय में
६०५
अध्ययन- २६
TIGCOM