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प्राप्त कर (वह) सम्यक्त्व को (शंका आदि दोषों से रहित करते हुए उसे) विशुद्ध-निर्मल बनाता है, तथा मिथ्यात्व की निर्जरा करता है।
(सू.५८) (प्रश्न-) भन्ते! 'वचन-समाधारणा' (वाणी को निरन्तर
स्वाध्याय आदि प्रशस्त कार्यों में लगाये रखने) से जीव क्या
(गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) 'वचन-समाधारणा' से (जीव) वाक्साधारण (कथन-योग्य)
दर्शन-पर्यायों (जीव आदि पदार्थों से सम्बन्धित, सम्यक्त्व के निश्चय सम्यक्त्व व व्यवहार सम्यक्त्व आदि विविध भेदों) को (शंका आदि दोषों से रहित करता हुआ) विशुद्ध करता है। वाक्साधारण दर्शन-पर्यायों की विशुद्धि करके (वह) 'सुलभ बोधिता' (बिना कठिनाई के सम्यग्ज्ञान को अधिगत कर लेने की क्षमता) को प्राप्त करता है तथा 'दुर्लभ बोधिता' (सम्यक्
ज्ञान को दुर्लभ बनाने वाले कर्म) का क्षय करता है। (सू.५६) (प्रश्न-) भन्ते! 'काय-समाधारणा' (संयम व शुद्ध निर्दोष
प्रवृत्तियों में शरीर को लगाये रखने) से जीव क्या (गुण या
विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) 'काय-समाधारणा' से (जीव उन्मार्ग प्रवृत्ति के निरुद्ध हो जाने
से) चारित्र सम्बन्धी पर्यायों (क्षयोपशम आदि भेदों) की विशुद्धि करता है। चारित्र-पर्यायों की विशुद्धि कर (वह क्रमशः चारित्र-मोह की निर्जरा करते हुए) 'यथाख्यात चारित्र' को विशुद्ध बनाता है। 'यथाख्यात चारित्र' की विशुद्धि कर केवली अवस्था में विद्यमान (आयु, वेदनीय, नाम, गोत्र-इन) चार कर्म-प्रकृतियों को क्षीण करता हैं उसके बाद, (वह) सिद्ध, बुद्ध, मुक्त व निर्वाण प्राप्त होता है, तथा समस्त दुःखों का अन्त कर देता है।
CAMER
अध्ययन-२६
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