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(सू.८) (प्रश्न-) भन्ते! गर्हणा (दूसरों या गुरुजनों के सम्मुख अपने
दोषों के प्रकाशन, एवं आत्म-साक्षी से उन दोषों के त्याग)
से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) गर्हणा से (जीव) अपुरस्कार (सम्मान के अलाभ या अवज्ञा)
को उपलब्ध करता है। अपुरस्कृत होने वाला जीव अप्रशस्त (मानसिक, वाचिक व कायिक) व्यापारों से निवृत्त होने लगता है। प्रशस्त (कायिक आदि) व्यापारों में प्रवृत्त अनगार 'अनन्त' (ज्ञान व दर्शन आदि स्वरूपों) का घात करने वाले पर्यायों (पुद्गल द्रव्य की ज्ञानावरण आदि कर्म रूपों में होने वाली
परिणतियों) का क्षय करता है। (सू.६) (प्रश्न-) भन्ते! सामायिक (समभाव की साधना) से जीव क्या
(गुण या विशिष्ट लाभ) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) सामायिक द्वारा जीव सावद्य (पापकारक असत्प्रवृत्ति रूप)
योगों से विरति भाव को उपलब्ध करता है।
(सू.१०) (प्रश्न-) भन्ते! चतुर्विंशति(चौबीस तीर्थंकरों के)स्तव (गुणकीर्तन)
से जीव क्या (गुण व विशिष्ट लाभ) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) चतुर्विंशति स्तव से दर्शन-विशुद्धि (सम्यक्त्व गुण में होने वाले
दोषों की विशुद्धि) को उपलब्ध करता है। (सू.११) (प्रश्न-) भन्ते! वन्दना से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल)
उपलब्ध करता है? (उत्तर-) वन्दना से (जीव) नीच गोत्र (कर्म) का क्षय करता है, उच्च
गोत्र (कर्म) को बांधता है। (वह) अप्रतिहत (कहीं बाधित न होने वाले) आज्ञा-फल व सौभाग्य को प्राप्त करता है तथा 'दाक्षिण्य भाव' (लोक-अनुकूलता, लोक-प्रियता, सर्वविधकुशलता) को उपार्जित करता है।
अध्ययन-२६