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६. वहां (यज्ञ में भिक्षा हेतु) उपस्थित हुए सात्विक (मुनि) को
यज्ञकर्ता (विजयघोष) ने (भिक्षा देने से) निषेध कर दिया (और कहा-) “हे भिक्षु! (मैं) तुम्हें तो भिक्षा नहीं दूंगा।"
७. “(हे भिक्षो!) यह भोजन तो उनके लिए है जो वेदों के ज्ञाता विप्र
हैं, और जो यज्ञ (सम्पन्न करने के लिए (नियुक्त) द्विज हैं और जो ज्योतिष शास्त्र (आदि छः वैदिक) अंगों के ज्ञाता तथा जो धर्मों (धर्मशास्त्रों) के पारंगत (विद्वान) हैं;" “(और) जो अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, हे भिक्षु! उन्हीं को यह सर्वकामिक (सभी अभिलषित वस्तुओं व छहों रसों से युक्त, सबको अभीष्ट) अन्न देने के लिए है।"
६. वहां इस प्रकार यज्ञकर्ता द्वारा मना कर दिए जाने पर (भी) वे,
उत्तम पदार्थ (मोक्ष) के गवेषक महामुनि, न तो रुष्ट ही हुए और न ही संतुष्ट ।
१०.
(उन्होंने) न तो अन्न (भोजन की प्राप्ति) के लिए, न ही जल के लिए और न ही (वस्त्र-पात्र आदि द्वारा) जीवन-निर्वाह के लिए (कुछ कहा) किन्तु उन (ब्राह्मणों) की (मिथ्या ज्ञान निवृत्ति व कर्म-बन्धनों से) मुक्ति कराने
के उद्देश्य से यह वचन कहा११. (तुम) न तो वेद के मुख (प्रमुख रूप से प्रतिपादित विषय) को
जानते हो, न ही यज्ञों का , जो 'मुख' (यज्ञीय प्रवृत्ति को प्रारम्भ करने वाला प्रमुख व्यक्ति) होता है (उसे) जानते हो, नक्षत्रों का जो मुख (प्रधान) होता है, (उसे) और धर्मों का जो 'मुख' (उद्गम-स्रोत) है, न उसे ही जानते हो।
अध्ययन-२५
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