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के नितान्त अभाव का सूचक है। इस से जीवन खुली पुस्तक जैसा बनता है। गुरु-आज्ञा से अपना या दूसरों का कार्य करने से अहंकार का तिरोभाव और सहायक बनने की प्रेरणा का उदय होता है। लाये हुए द्रव्यों के उपभोग हेतु अन्य मुनियों को आमंत्रित करने से सात्विक स्नेह की वृद्धि होती है। द्रव्यासक्ति कम होती है। दूसरों से अपना कार्य कराने के लिये दूसरों की इच्छा को निर्णायक महत्त्व देने से विनयशीलता आती है। संघ-एकता सुदृढ़ होती है। स्व-दोष-समीक्षा व आत्म-निन्दा से विकास-पथ प्रशस्त होता है। गुरु आज्ञा को सदैव स्वीकार करने से अनाशातना और विनयशीलता बढ़ती है। गुरु के पधारने पर उठ कर सम्मान-भाव-व्यंजना से आत्मा का उत्थान होता है। गुरु- आज्ञा से दर्शन - ज्ञान - चारित्र - वृद्धि हेतु दूसरे गण में जाने व निश्चित समय तक रहने से अप्रमत्तता या जागरूकता बढ़ती है। इन सभी गुणों की प्राप्ति से सामाचारी- सम्पन्न साधक मुक्ति-मार्ग पर निरन्तर अग्रसर होता जाता है।
अहोरात्र का आधा भाग स्वाध्याय हेतु निर्धारित करना जीवन में स्वाध्याय के महत्त्व का स्वत: सिद्ध प्रमाण है। ज्ञान आत्मा का गुण है, जो स्वाध्याय से उजागर होता है। इसी को अंतर्नेत्रों का खुलना कहते हैं। अप्रमत्त होना कहते हैं। इसी से सभी पापों से बचाने वाली विवेक-शक्ति का उद्भव और विकास होता है। विवेक शक्ति ही यतना-सम्पन्न व्यवहार के रूप में अभिव्यक्त होती है। ऐसा साधक दो प्रहर या अहोरात्रि का एक-चौथाई भाग ध्यान-लीन हो कर आनन्द-प्राप्ति में व्यतीत या सार्थक करता है। उसकी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक अहोरात्रि का एक चौथाई भाग ही पर्याप्त होता है। मात्र एक प्रहर की निद्रा उसे सामाचारी-पालन की ऊर्जा दे देती है।
सामाचारी सम्पन्नता की सब से महत्त्वपूर्ण देन है - संयम में उत्साह । सामाचारी किसी पर लादी नहीं जाती। उसका एक सार्थक जीवन-पद्धति के रूप में चुनाव होता है। अपना चुनाव होने के कारण वह कुण्ठाओं का नहीं, आनन्द का स्रोत होती है। ऊब का नहीं, उल्लास का संचार करती है। बन्धन का नहीं, मुक्ति का अनुभव प्रदान करती है। समय को संयम का प्रतिरूप बनाकर साधक को काल-जेता बना देती है। सामाचारी- सम्पन्न साधक को समय नहीं रचता। वह समय को रचता है।
शरीर के स्थान पर आत्मा के लिए जीने की सशक्त प्रेरणा देने के कारण प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
अध्ययन- २६
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