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अविनीत शिष्य अपने अज्ञान का उत्पादक-व्यवस्थापक होता है। द्वेष, असहिष्णुता, दम्भ, कुटिलता, प्रमाद, कलह-प्रियता, लालच, स्व-पर-पीड़ा, कायरता, चरित्रहीनता, अविश्वसनीयता, उद्दण्डता, विवेक-शून्यता आदि उसके स्वभाव की विशेषतायें होती हैं। इन विशेषताओं से उसे मोह होता है। परिणामतः ये उसके जीवन से मूल-बद्ध होती जाती हैं।
अविनीत शिष्य होने का अर्थ साधक का संयम से च्युत होना है। कहने को वह साधक कहलाता है। साधना उसके जीवन में नहीं रहती। उसके जीवन में रहता है-साधना का प्रदर्शन या साधना का पाखण्ड। इस पाखण्ड का ही प्रचार-प्रसार वह किया करता है। ऐसे में धर्म-रथ की चूलें हिलने लगती हैं। अविश्वसनीयता और अनास्था उसके पहियों को धुरी से अलग कर देती हैं। धर्म-रथ खण्डित होकर ठहर जाता है। गति-शून्य रथ उपहास का पात्र बनने लगता है। अनेक-जीवों का सम्भावित उद्धार-मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।
अविनीत शिष्य केवल गुरु का ही अपराधी नहीं होता। वह अपनी आत्मा का भी अपराधी होता है। उन सब आत्माओं का भी अपराधी होता है, जो उसके कारण स्वभाव को जीने से वंचित रह जाती हैं। वह सत्य का भी अपराधी होता है। अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्चर्य और अपरिग्रह जैसे मंगलमय जीवन-मूल्यों का भी अपराधी होता है। आगम का भी अपराधी होता है। तीर्थ का भी अपराधी होता है। धर्म और जिन-शासन का भी अपराधी होता है।
ऐसे अविनीत शिष्य को पालते-पोसते और सहते रहना भी धर्म-संघ-तीर्थ को परोक्षतः क्षति पहुंचाना है। उलटे कटोरे में ज्ञान का अमृत नहीं भरा जा सकता। मायावी और लोभी को धर्म का अक्षय धन नहीं सौंपा जा सकता। गर्गाचार्य यह सब जानते थे। उन्होंने अपनी अविनीत शिष्य-सम्पदा त्याग दी। आपदाओं से मुक्त होकर वे एकाकी आत्म-संयम-पथ पर अग्रसर हो गये। अपने संयम को उन्होंने बचा लिया। अपने अविनीत शिष्यों का संयम-धन बचाने के समस्त प्रयत्नों में असफल होने पर उन्होंने उन्हें ऐसे छोड़ दिया जैसे व्यक्ति अपने फटे-पुराने वस्त्रों को छोड़ देता है। बाद में उन अविनीतों का क्या हश्र हुआ, यह किसी भी स्वाध्यायशील सजग मानस के लिये सहज कल्पना-गम्य है।
अविनीत शिष्य के लक्षणों का स्पष्ट रूप से वर्णन प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है। उन्हें जान-समझ कर उनसे बचने की प्रबल प्रेरणा देने के कारण इसकी स्वाध्याय मंगलमय है।
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अध्ययन-२७
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