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१२. शब्द, अन्धकार, उद्योत (प्रकाश) प्रभा, छाया, आतप तथा वर्ण,
रस, गन्ध व स्पर्श- ये 'पुद्गल' (में ही प्राप्त होने से ‘पुद्गल') के लक्षण हैं।
१३. एकत्व (एकत्रित होना), पृथक्त्व (पृथक् हो जाना), संख्या (एक
दो आदि संख्या - बद्ध होना), संस्थान (आकृति धारण करना), तथा संयोग (संयुक्त होना), व विभाग (विभक्त हो जाना) -ये
पर्यायों के लक्षण हैं। १४. जीव, अजीव, बन्ध (जीव कर्म संयोग), पुण्य, पाप, आस्रव
(कर्म-आगमन का मार्ग), संवर (कर्म-निरोध का कारण), निर्जरा (कर्मक्षय) व मोक्ष (समस्तकर्मनाश)- ये नव तथ्य (तत्व) हैं।
१५. इन 'तथ्य' (अर्थात् यथार्थ सत्ता वाले) जीव-अजीवादि नव
पदार्थों की सत्ता से सम्बन्धित, उपदेश के प्रति भाव-सहित श्रद्धा करने वाले के उस (श्रद्धा - भाव) को 'सम्यक्त्व' कहा गया है।
१६. (इस सम्यक्त्व के १० भेद और तदनुरूप सम्यक्त्वी के
भी १० भेद होते हैं-) १. निसर्गरुचि, २. उपदेश-रुचि, ३. आज्ञारुचि, ४. सूत्र-रुचि, ५. बीज-रुचि, ६. अभिगम-रुचि, ७. विस्तार-रुचि ८. क्रिया-रुचि ६. संक्षेप-रुचि और १० धर्म-रुचि।
निसर्गरुचि वह (उसकी) है, जो पर-उपदेश के बिना ही अपनी सम्मति (सहज ज्ञान-शक्ति) से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर- इन (तत्वों) को यथार्थ रूप से जानकर श्रद्धा करता है।
अध्ययन-२८