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अध्ययन परिचय
ABORTANCY
तरेपन गाथाओं से निर्मित प्रस्तुत अध्ययन का केन्द्रीय विषय है-श्रमण-जीवन के आचार की सम्यक् व्यवस्था। इसीलिये इसका नाम 'सामाचारी' रखा गया। यह श्रमण-जीवन की समय-सारणी है। इसके अनुरूप जीते हुए अपने आयुष्य के सम्पूर्ण समय को संयम से आलोकित किया जा सकता है।
सम्यक् चारित्र समभाव से उत्पन्न आचार या व्यवहार का नाम है। समभाव का अर्थ है-न तो अपने प्रति आसक्त और उदासीन होना तथा न ही किसी अन्य के प्रति। आसक्ति और उदासीनता, भावों की दो परस्पर विपरीत अवस्थायें हैं। जीव प्राय: इन्हीं दोनों बिन्दुओं पर या दोनों के बीच कहीं न कहीं स्थित होता है। इन दोनों का निषेध समभाव है। सम-भाव को साध लेने वाले साधक को न तो दु:ख दुखी कर पाते हैं और न ही सुख सुखी। सुख-दु:ख सांसारिकता के रूप हैं। सांसारिकता से ऊपर उठ कर सत्य को पूर्णत: देख पाने, अनुभव कर पाने और जी पाने की क्षमता प्रदान करता है-सम-भाव। सम-भाव-सम्मत आचार की सुव्यवस्था सामाचारी' है।
व्यक्ति की दृष्टि से सामाचारी कर्म-मुक्ति का प्रामाणिक माध्यम और परम सिद्धि का सुदृढ़ सोपान है। संघ की दृष्टि से सामाचारी धर्म-प्रताप के चतुर्दिक प्रचार-प्रसार का विश्वसनीय आधार है। संघ की एकता का स्रोत है। धर्म-तीर्थ के दीर्घजीवी होने का सूचक है। व्यक्ति और समाज, दोनों की दृष्टियों से यह कल्याण का साकार रूप है। सभी का मंगल करने वाली मानवीय शक्ति है।
मुमुक्षु साधक की अहर्निश-चर्या में किस समय कौन सा कार्य अपेक्षित है, यह यहाँ स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है। निश्चित कार्य के समय का ज्ञान बिना किसी उपकरण के साधक को हो सके, इस की व्यवस्था की गई है। धूप-छाँव, आकाश और नक्षत्रों की गति व स्थिति इस व्यवस्था के आधार हैं। स्पष्ट है कि इनके ज्ञान से श्रमण किसी बाह्य उपकरण पर निर्भर नहीं रहता। यह ज्ञान उसके स्वावलम्बन का स्रोत है।
यहाँ प्रतिपादित सामाचारी के दसों भेद सामाचारी-सम्पन्न साधक में विविधानेक गुणों की सृष्टि करते हैं। उपाश्रय से जाते हुए 'आवस्सियं' और आते हुए 'निसीहियं' के उच्चारण का विधान श्रमण जीवन में गोपनीय कार्य
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उत्तराध्ययन सूत्र