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३६. “इस तरह, जयघोष महामुनि के कथन द्वारा संशय दूर हो जाने
पर विजय घोष' ब्राह्मण ने उनकी वाणी को (और इस तथ्य को भी) सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया ।"
३७. संतुष्ट होकर विजयघोष ने करबद्ध होकर यह कहा-“(आपने)
मुझे ब्राह्मणत्व के यथार्थ रूप का अच्छी तरह उपदेश दिया है।"
३८. “आप (ही) यज्ञों के (अहिंसादि पांच महाव्रत रूप से) यथार्थ
यज्ञ कर्ता हैं। आप (ही) वेदज्ञाता आत्म-ज्ञाता विद्वान् हैं, आप ही ज्योतिष (आत्मद्रष्टा) (वैदिक) अंग के ज्ञाता हैं, तथा आप
ही धर्मों के पारगामी हैं।" ३६. “आप ही स्वयं का तथा दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं ।
हे भिक्षु-श्रेष्ठ ! भिक्षा लेकर हम (सब) पर अनुग्रह करें।"
४०. (जयघोष मुनि ने कहा-) हे द्विज! मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन
नहीं है। (तुम तो) शीघ्र अभिनिष्क्रमण करो, ताकि भयंकर आवर्तों (भंवरों) वाले घोर संसार-सागर में भ्रमण न करना
पड़े।"
४१. “(तथ्य यह है कि-) उपलेप (कर्म-लेप तो) भोगों (के सेवन) में
(ही) होता है। अभोगी (भोगविरत तो कर्मों से) लिप्त नहीं होता, (अतः) भोगी संसार में भ्रमण करता है और भोगरहित मुक्त हो जाता है।"
१. इस लम्बी वातों के पश्चात् विजयघोष ने महामुनि जयघोष को पहचान लिया कि ये मेरे
ज्येष्ठ भ्राता हैं।
अध्ययन-२५
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