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२६. “आप (सम्यक्) ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा क्षान्ति व मुक्ति
(निर्लोभवृत्ति) के साथ (मुक्ति-मार्ग पर, आगे ही आगे) बढ़ते (या इन गुणों से समृद्ध होते) जाएं।"
२७. इस प्रकार, राम (बलराम), केशव (वासुदेव), दशार्ह (समुद्रविजय
आदि दशों यादव भ्राता) तथा (अन्य) बहुत-से व्यक्ति अरिष्टनेमि की वन्दना कर, द्वारिकापुरी को लौट आए।
२८. जिनेन्द्र (अरिष्टनेमि) की प्रव्रज्या (की घटना) को सुनकर, (उस
राजीमती) राज-कन्या की हंसी (प्रसन्नता) और आनन्द समाप्त हो गए, और (वह) शोक से स्तब्ध (मूर्च्छित) हो गई।
२६. राजीमती विचार करने लगी-“मेरे जीवन को धिक्कार है, जो
कि मेरा उनके (अरिष्टनेमि) द्वारा परित्याग कर दिया गया। मेरे लिए (तो अब) प्रव्रज्या लेना ही श्रेयस्कर होगा।"
३०. (भगवान् अरिष्टनेमि के सान्निध्य में) धैर्यसम्पन्न तथा
(संयम-अंगीकार करने के लिए) सुनिश्चित अध्यवसाय वाली उस (राजीमती) ने कूर्च (बांस की बनी मोटी कंघी) व फनक (कंघी) से संवारे हुए तथा भवंरे-जैसे (काले-काले) अपने केशों का स्वयं लुंचन किया।
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३१. वासुदेव ने केशहीन हो चुकी उस इन्द्रिय-जयी (राजीमती) को
कहा-“हे कन्ये! तू घोर संसार-सागर को अतिशीघ्र पार कर।"
अध्ययन-२२
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