________________
२६. “प्रथम (तीर्थंकर) के (समय में) साधु ऋजु व जड़ हुआ करते
थे। अन्तिम (तीर्थंकर के समय में ये) वक्र व जड़ होते हैं, और मध्यवर्ती (तीर्थंकरों के समय में) ऋजू व प्राज्ञ होते हैं, इसलिए (उन लोगों की प्रज्ञा व स्वभाव को ध्यान में रखकर) 'धर्म' के
दो रूप (उपदिष्ट) किये गये हैं।" २७. “पूर्ववर्ती (प्रथम तीर्थंकर-कालीन) साधुओं के लिए 'कल्प'
(साधु-सम्बन्धी आचार-नियम) दुर्विशोध्य (यथावत् शुद्ध रूप में दुर्गाह्य) हुआ करता है, चरम-कालीन तीर्थंकर के साधुओं के लिए (यह ‘कल्प' शुद्ध रूप में दुर्ग्राह्य होने के साथ-साथ) दुस्साध्य (कठिनता से पालनीय) होता है, किन्तु मध्यवर्ती (तीर्थंकरों के समय में यह 'कल्प') 'सुविशोध्य' (सम्यक्तया समझ में आने योग्य) तथा 'सुपालनीय' (सरलता से पालन करने
योग्य) होता है।" २८. (केशीकुमार ने कहा-) “हे गौतम! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। आपने
मेरा संशय दूर कर दिया है। मुझे एक और सन्देह है। हे गौतम! उसके सम्बन्ध में (भी) मुझे आप बताएं ।”
"महायशस्वी वर्द्धमान द्वारा जो (इस) 'अचेलक' (अवस्त्र व अल्पमूल्य अल्पपरिणाम वाले वस्त्रों के प्रयोग की अनुमति से युक्त) धर्म की देशना दी गई है. (किन्त) महायशस्वी पार्श्वनाथ द्वारा जो (इस) 'सान्तरोत्तर' (विविधवर्णी व बहुमूल्य, अपेक्षाकृत अधिक परिणाम वाले वस्त्रों के प्रयोग की अनुमति से युक्त) धर्म
की देशना दी गई है।" ३०. “एक (ही लक्ष्य रूप) कार्य में प्रवृत्त (इन दोनों) में (इस) भेद
का (आखिर) क्या कारण है? हे मेधाविन्! (इन) दो प्रकार के लिंगों (साधु-वेशों) के सम्बन्ध में आपको (कभी) सन्देह कैसे
नहीं होता है?" १. ऋज-जड-सरल-स्वभावी, किन्तु मन्दमति । वक्र-जड-विविध कृतर्क करने के स्वभाव वाले.
साथ ही मन्दबुद्धि भी। ऋजु प्राज्ञ सरलस्वभावी तथा तत्व को शीघ्र हृदयंगम कर लेने वाले । अध्ययन-२३
४३७