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२०. (कुमार अरिष्टनेमि की आज्ञानुरूप सारथी द्वारा उन प्राणियों को
बाड़ों से मुक्त कर दिये जाने के बाद, संतुष्ट होकर) उन महायशस्वी (अरिष्टनेमि) ने दोनों कुण्डल, करधनी तथा समस्त आभरण (उतार कर) सारथी को दे दिए (और बिना विवाह किये
ही लौट गए। २१. (दीक्षा-हेतु जहां अरिष्टनेमि के) मन में ये परिणाम (मनोभाव)
उत्पन्न हुए, (वैसे ही) उनका यथोचित अभिनिष्क्रमण (महोत्सव) मनाने के लिए समस्त ऋद्धियों तथा (अपनी-अपनी त्रिविध) परिषदों के साथ (लोकान्तिक आदि) देव (पृथ्वी पर) उपस्थित
हुए। २२. तदनन्तर, देवों और मनुष्यों से घिरे हुए भगवान् (अरिष्टनेमि
शिविकारत्न (देवनिर्मित 'उत्तरकुरु' नामक श्रेष्ठ पालकी) पर आरूढ़ हुए, और द्वारिका से निष्क्रमण कर, रैवतक (गिरनार)
पर्वत पर उपस्थित हुए (जा पहुंचे। २३. (वहां सहस्राम्रवन नामक) उद्यान में पहुंचकर, उत्तम शिविका से
उतर कर 'चित्रा' नक्षत्र में एक हजार (दीक्षार्थी) व्यक्तियों के साथ उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया (अर्थात् श्रमण-दीक्षा ग्रहण
की)। २४. शीघ्र ही, समाधि-युक्त (अर्थात् यावज्जीवन सावध व्यापार के
त्याग की प्रतिज्ञा से युक्त) उन (अरिष्टनेमि) ने सुगन्ध से वासित किये गये मृदु व धुंघराले केशों का स्वयं (अपने हाथों से)
पंचमुष्टि-लुंचन किया। २५. वासुदेव ने इन केशहीन व जितेन्द्रिय (अरिष्टनेमि) को कहा-“हे
जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ! आप अपने इच्छित मनोरथ को शीघ्र प्राप्त करें।"
अध्ययन-२२
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