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६. उत्तम प्रव्रज्या (रूपी मोक्ष-दायक गुणों) के 'स्थान' (अर्थात्
मुनि-पद की प्राप्ति या दीक्षा-स्थल) के लिए उद्यत होने वाले राजर्षि (नमि) को इन्द्र ने ब्राह्मण के रूप (वेश) में (आकर) यह वचन कहा
७. (“हे राजर्षि!) क्या बात है (जो) आज मिथिला में, महलों में
और (सामान्य) घरों में, कोलाहल से भरे दारुण (हृदयविदारक) शब्द सुनाई पड़ रहे हैं?"
इस अर्थ (से भरी बात) को सुनकर, 'नमि' राजर्षि ने (अपने अभिनिष्क्रमण के औचित्य के साधक) 'हेतु' और (उक्त कोलाहल के वास्तविक) 'कारण' (को बताने के उद्देश्य) से प्रेरित होते हुए तब देवेन्द्र को यह कहाः
६. "मिथिला में (एक) चैत्यवृक्ष (चित्तालादक उद्यान में स्थित
वृक्ष, या 'चैत्य' नाम से अभिहित विशिष्ट वृक्ष था, जो) ठण्डी छाया (देने) वाला, (देखने में) मनोहर, पत्र-पुष्प व फलों से समृद्ध तथा बहुत (पक्षियों आदि) के लिए सर्वदा अति-उपकारी था।
१०. “हे (ब्राह्मण! प्रचण्ड) वायु द्वारा (उस) मनोरम 'चैत्य'
(चित्ताह्लादक उद्यान या वृक्ष) के नष्ट कर दिए जाने पर ये पक्षी (के समान आश्रित जन) दुःखी, शरण-हीन व पीड़ित होकर आक्रन्दन (रोना-पीटना) कर रहे हैं । ''
१. नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को यहाँ स्पष्ट कर दिया है कि जैसे पक्षियों के आर्तनाद में उस वृक्ष
की निर्दोषता है, वैसे ही मेरा अभिनिष्क्रमण आश्रित जनों के आर्तनाद के कारण नहीं, अपितु उनको स्वार्थ-विनाश का जो भय है, वह उस आर्तनाद में कारण है। अभिनिष्क्रमण तो
स्वपर-कल्याण का हेतु है अतः वह उचित है। अध्ययन-६