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६. “(वीभत्स रूप वाला) काला-कलूटा, विकराल (डरावनी आकृति
वाला), मोटी-बेडौल नाक वाला, अधनंगा (या जीर्ण-मलिन व तुच्छ वस्त्र पहिने हुए), पांशु-पिशाच (धूल से सने होने के कारण पिशाच की तरह दिखाई देने वाला), और गले में (अर्थात् कन्धे पर) संकर दूष्य (कूड़े-कर्कट के ढेर से मानों उठा कर लाया
हुआ चिथड़ा) पहिने हुए (यह आखिर) कौन चला आया है?" ७. “(अरे!) अदर्शनीय (मनहूस-जिसे देखना भी शुभ नहीं है)! तू
कौन है? किस आशा से यहां आया है? (अरे!) अधनंगे (या जीर्ण-मलिन व तुच्छ वस्त्र) पहने हुए ‘पांशु-पिशाच' (धूल से सने होने के कारण पिशाच या भूत की तरह दिखाई देने वाला)! चला जा! (यहां से) निकल जा-दूर हो जा! (अरे!) अब यहां खड़ा क्यों है?"
उस समय तिन्दुक (आबनूस) के पेड़ पर रहने वाला (एक) यक्ष (जो) उन महामुनि के प्रति अनुकम्पा-भाव रखने वाला (था) अपने शरीर को छिपा कर (महामुनि के शरीर में प्रविष्ट हो गया, और उन ब्राह्मणों से) इन वचनों को कहने लगाः
६. “मैं संयमी, ब्रह्मचारी, तथा धन (संग्रह) से एवं (अन्नादि के)
पाचन से, और (किसी भी प्रकार के) परिग्रह से (सर्वथा) विरत (दूर रहने वाला) 'श्रमण' हूँ। मैं तो भिक्षा के समय, दूसरों के द्वारा निष्पादित अन्न (की प्राप्ति) के लिए यहां आ गया हूँ।"
१०. “आपके यहां, यह बहुत सारा अन्न (लोगों में) वितरित किया
जा रहा है, (और बहुत सारा अन्न) खाद्य व भोज्य के रूप में भी प्रयुक्त हो रहा है (अर्थात् खाया-खिलाया जा रहा है)। (आप) जान लें कि मैं मांग कर (भिक्षा आदि से) जीवन चलाने वाला हूँ, इसलिए (मुझ) तपस्वी को बचे-खुचे में से (कुछ) प्राप्त हो जाय।"
अध्ययन-१२
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