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३८. (मुनि द्वारा उद्बोधन-) “अग्नि (काय) का समारम्भ करते रहने
वाले ब्राह्मणो! जल से (आप लोग) कौन-सी बाह्य शुद्धि ढूंढ़ रहे हो? (यज्ञ व जलादि से) बाह्य शुद्धि को जो आप खोज रहे हैं, उसे कुशल (तत्वज्ञानी) लोग 'सुदृष्ट' (अच्छी तरह सोचा-समझा
हुआ, या सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न कार्य) नहीं बताते हैं।" ३६. “कुशा, यूप (यज्ञ-स्तम्भ), तृण व काष्ठ (इन्धन) एवं अग्नि का
प्रयोग, और सुबह-शाम जल का स्पर्श करते हुए प्राणियों/(द्वीन्द्रियादि) भूतों व (एकेन्द्रिय) की विशेष हिंसा करते हुए मन्दबुद्धि आप लोग बार-बार पाप किया करते हैं।"
४०. (याज्ञिक पुरोहित की जिज्ञासा-) “हे भिक्षु! हम कैसे आचरण
करें (और) किस प्रकार यज्ञ करें ताकि पाप-कर्मों को दूर कर सकें ? हे यक्ष-पूजित संयमी! हमें बताएं कि कुशल (तत्वज्ञ) पुरुषों ने किस रूप से समीचीन यज्ञ का कथन किया है?"
४१. (मुनि का समाधान) “छः (प्रकार के) जीव-निकायों का
समारम्भ (हिंसा) नहीं करते हुए, असत्य व चौर्य (आदि) का सेवन नहीं करते हुए, परिग्रह-स्त्री-मान-माया (आदि दोषों के स्वरूप) को समझ कर इनका परित्याग करते हुए (ही) इन्द्रियादि का दमन करने वाले प्रवृत्तिशील होते हैं (या विचरण
किया करते हैं।" ४२. (“जो अहिंसा आदि) पांच संवरों से सम्यक् रूप से संवृत
(सुरक्षित) रहते हैं, यहां (इस जन्म में संयमहीन) जीवन की
आकांक्षा नहीं करते, 'काय' का व्युत्सर्ग (रूप 'तप') करने वाले हैं, पवित्रता से युक्त हैं, तथा देह (की आसक्ति) का परित्याग कर चुके हैं, (वे ही) महाविजय-शाली (कर्मों पर विजय करने वाला) श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं।"
अध्ययन-१२
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