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- ३०. “संयमी (मुनि को चाहिए कि वह) विविध रुचियों एवं मानसिक
विकल्पों का, तथा जो भी समस्त अनर्थकारी कार्य हैं, उनका परित्याग करे। इस (तत्त्वज्ञान रूप) 'विद्या' (को स्वीकार कर) संयम-मार्ग का अनुसरण करे ।”
३१. “मैं (शुभाशुभ-सूचक) प्रश्नों से, तथा पर-मंत्रणा (गृहस्थ-कार्यों
की मन्त्रणा) से (स्वयं को) निवृत्त किए रहता हूँ। अहो! (धर्म-अनुष्ठान के प्रति) रात-दिन जागृत रहता हूँ, ऐसा जान कर, तपश्चरण करो।"
३२. “जो तुम मुझे समीचीन व शुद्ध मन से इस (काल) समय में
(या आयु के विषय में) पूछ रहे हो, उसे (तो) 'बुद्ध' (तत्त्वज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी या मैं) ने प्रकट किया है, (और) वह (सब) ज्ञान जिन-शासन (आगमादि प्रवचन) में (ही विद्यमान) है
(अन्यत्र नहीं)।" ३३. “धीर (साधक) क्रिया (सदनुष्ठान) में रुचि रखे, अक्रिया
(मिथ्यादृष्टि परिकल्पित आचार) का परित्याग करे । सम्यग्दर्शन से दृष्टि-सम्पन्न होते हुए, अत्यन्त दुष्कर (संयम) धर्म का आचरण करे ।”
३४. “अर्थ(मोक्ष) व धर्म (मोक्ष-मार्ग) से उपशोभित इस पुण्य (पवित्र,
निष्कलंक, पुण्यप्रद) 'पद' (जिनवाणी, जिन-उपदेश) को सुनकर, भरत-चक्रवर्ती ने भी भारतवर्ष और काम-भोगों का त्याग कर प्रव्रज्या धारण की थी।"
३५. “सगर चक्रवर्ती ने भी (तीन दिशाओं में) सागर-पर्यन्त (तथा
उत्तर दिशा में 'हिमवत्' पर्यन्त) 'भारतवर्ष' और केवल (अद्वितीय) ऐश्वर्य का त्याग कर, 'दया' (संयम-अनुष्ठान) के द्वारा 'मुक्ति' प्राप्त की थी।"
अध्ययन-१८
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