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८६. “(मृगापुत्र का कथन-) हे माता-पिता! आप (दोनों) की अनुमति
प्राप्त कर समस्त दु:खों से मुक्ति दिलाने वाली 'मृगचारिका' का आचरण करूंगा।” (माता-पिता ने कहा-) “हे पुत्र! जाओ! जैसे
(भी) तुम्हें सुख हो (वैसा करो)"। ८७. इस प्रकार उस (मृगापुत्र) ने अनेक प्रकार से माता-पिता
को समझाकर और उनकी अनुमति प्राप्त कर, (सांसारिक व्यक्तियों व वस्तुओं आदि के प्रति) ममत्व को (उसी प्रकार) तब त्याग दिया, जिस प्रकार महानाग केंचुली को (छोड़ देता है)। (वह मृगापुत्र) ऋद्धि, वैभव, मित्र, पुत्र पत्नी एवं सगे-सम्बन्धियों (के प्रति ममत्व) को वस्त्र पर लगी धूल की भांति झाड़ कर (दीक्षार्थ घर से) निकल पड़ा।
८६. (वह) पांच महाव्रतों से युक्त, पांच समितियों से समित (सम्यक्
अनुष्ठान युक्त) तथा तीन गुप्तियों से गुप्त (सुरक्षित) होता हुआ आभ्यन्तर व बाह्य तपश्चरण में (मृगापुत्र) तत्पर (हो गया)।
६०. (मृगापुत्र) ममत्व-रहित, निरभिमानी, आसक्तिहीन, गर्व का
त्यागी तथा त्रस व स्थावर सभी जीवों पर समता भाव रखने वाला (हो गया)।
६१. (वह) लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा तथा
मान-अपमान (सभी स्थितियों) में समता-भाव धारण करने वाला (हो गया)।
अध्ययन-१६
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