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१०. दीक्षा लेने के उपरान्त जिन गृहस्थों को देखा हो (परिचय में
आए हों), या दीक्षा न ली हो, उस समय में (जो गृहस्थ) परिचित हुए हों, उनका इहलौकिक फल (भिक्षा, वस्त्र, पात्र तथा प्रशंसा आदि) की प्राप्ति हेतु (उनसे) जो विशेष परिचय (व मेलजोल)
नहीं करता, वह (ही वास्तव में) 'भिक्षु' है । ११. शैया, आसन, पान, भोजन तथा विविध खाद्य व स्वाद्य पदार्थ
(यदि) दूसरे (गृहस्थों) द्वारा न दिए जाएं या (मांगने पर भी) मना कर दिए जाएं, (तो भी) जो निर्ग्रन्थ (उनके प्रति) द्वेष नहीं करता, वह (ही वास्तव में) 'भिक्षु' है।
१२. जो (मुनि) अन्य (गृहस्थों) से जो कुछ भी आहार, पान तथा
विविध (खाद्य व स्वाद्य पदार्थों को प्राप्त कर, उस (दाता) पर त्रिविध प्रकार (मन, वचन व काया) से अनुकम्पा (आशीर्वाद आदि प्रदान कर प्रत्युपकार) नहीं करता (या ग्लान, वृद्ध आदि साधर्मी साधुओं पर अनुकम्पा करता है), और जो मन-वचन-काया से (स्वयं) अच्छी तरह संवृत (सुरक्षित) रहता है, वह (ही वास्तव
में) 'भिक्षु' है। १३. आयामक (नीरस या बासी भोजन) जौ से बना (दलिया आदि)
भोजन, ठण्डा भोजन, कांजी का पानी, जौ का पानी (जैसी) नीरस भिक्षा की (भी जो) निन्दा नहीं करता, तथा निम्न-सामान्य घरों में (भी भिक्षा-हेतु) पर्यटन करता है, वह (ही वास्तव में)
'भिक्षु' है। १४. संसार में देवों, मनुष्यों के तथा पशुओं के विविध भयंकर व
अत्यन्त डरावने महान् (उच्च ध्वनि वाले- कर्णभेदी) शब्द हुआ करते हैं, (उन्हें) सुनकर जो भयभीत (धर्मध्यान से विचलित) नहीं होता, वह (ही वास्तव में) भिक्षु' है ।
अध्ययन-१५
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