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वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ के ब्रह्मचर्य के विषय में (स्वयं को व दूसरों को) शंका हो (सक) ती है, या फिर कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न हो (सक) ती है, या फिर (ब्रह्मचर्य का) नाश (भी) हो (सक)ता है, अथवा उन्माद (रोग) को (भी) प्राप्त कर (सक)ता है, अथवा दीर्घकालिक रोग व आतंक हो (सक)ता है, अथवा केवली (भगवान्) द्वारा उपदिष्ट ‘धर्म’ से भ्रष्ट हो ( सकता है, इसलिए (ऐसा कहा है कि निर्ग्रन्थ पूर्व की रति व क्रीड़ा को स्मरण न करे) ।
सूत्र - १०. (सातवां ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान- ) (जो) 'प्रणीत' (घृतादि रसयुक्त, स्निग्ध व पौष्टिक आहार का भोक्ता ( ग्रहण करने वाला) नहीं होता, वह 'निर्ग्रन्थ' है ।
ऐसा क्यों ?
( उक्त प्रश्न के उत्तर में) आचार्य ने कहा- 'प्रणीत' भोजन व पान ग्रहण करने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ के ब्रह्मचर्य के विषय में (स्वयं को व दूसरों को) शंका हो (सक)ती है, या फिर कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न हो (सक)ती है, अथवा (ब्रह्मचर्य का) नाश (भी) हो (सकता है, या उन्माद (रोग) को (भी) प्राप्त कर (सक) ता है, अथवा दीर्घकालिक रोग व आतंक हो ( सकता है, अथवा केवली (भगवान्) द्वारा उपदिष्ट 'धर्म' से भ्रष्ट हो सकता है ।, इसलिए (ऐसा कहा है कि) निर्ग्रन्थ 'प्रणीत' आहार का ग्रहण / सेवन नहीं करे ।
सूत्र - ११. (आठवां ब्रह्मचर्य-समाधि स्थान) (जो) अत्यधिक (मर्यादा से अधिक) मात्रा में पान-भोजन का ग्रहण / सेवन नहीं करता, वह 'निर्ग्रन्थ' है ।
ऐसा क्यों ?
( उक्त प्रश्न के उत्तर में) आचार्य ने कहा- (मर्यादित) मात्रा
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अध्ययन-१६
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DIOCOLAT