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अध्ययन-सार:
चाण्डाल कुलोत्पन्न हरिकेशबल मुनि पांच समितियों में समाधिस्थ और तीन गुप्तियों से गुप्त क्षमाशील, जितेन्द्रिय व तपस्वी मुनि थे। वे भिक्षा हेतु ब्राह्मणों के यज्ञ-मंडप में पहुंचे। तप से कृश, मलिन व जीर्ण वस्त्र-धारी कुरूप मुनि-देह का ब्राह्मणों ने उपहास किया। मुनि को दुत्कारा। मुनि सेवा में समर्पित यक्ष ने मुनि-देह में प्रविष्ट हो मुनि का परिचय देते हुए भिक्षा मांगी। ब्राह्मणों ने दान-योग्य पुण्य-क्षेत्र जाति व विद्यावान् ब्राह्मणों को ही बताया। यक्ष ने हिंसा, कषाय, परिग्रह व पाप-ग्रस्त ब्राह्मणों को पाप-क्षेत्र तथा समभावी, अकिंचन भिक्षुक को पुण्य-क्षेत्र कहा। इस से कुपित ब्राह्मणों के पुकारने पर ब्राह्मण-कुमार आये और मुनि को पीटने लगे। राजकुमारी भद्रा ने मुनि की त्याग, ब्रह्मचर्य सम्पन्न व देव-पूजित महिमा बताते हुए उन्हें शांत करने का प्रयास किया। मुनि-सेवा-रत यक्षों के समझाने पर भी वे न रुके तो यक्षों ने उन्हें प्रताडित किया। उनके शरीर क्षत-विक्षत हो रक्त-वमन करने लगे। राजकुमारी भद्रा की प्रेरणा से उनके पति यज्ञकर्ता रुद्रदेव ब्राह्मण ने मुनि से क्षमा याचना की। मुनि ने कहा कि उनके मन में न द्वेष था, न है। यक्षों ने ऐसा किया है। रुद्रदेव ने मुनि की शरण ग्रहण कर भिक्षा लेने का अनुरोध किया। मुनि ने भिक्षा ली। देवों ने पंच दिव्य प्रकट किये। जाति के स्थान पर तप की महिमा स्थापित हुई। मुनि ने कहा-अग्नि का समारम्भ व बाह्य स्नान शुद्धिकारी नहीं। हिंसा द्वारा पाप-संचय है। रुद्रदेव द्वारा करणीय प्रवृत्ति के विषय में पूछने पर मुनि बोले-जितेन्द्रिय, पंच-महाव्रत-धारी, कषाय-जेता, संवृत्त, अनासक्त, वासनाजयी पुरुष ही तप की ज्योति से जीवात्मा के ज्योतिस्थान पर तीन योगों की कड़छियों, शरीर के कण्डों, कर्म के ईंधन व संयम के शान्ति-पाठ से श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं। धर्म हृद है। ब्रह्मचर्य शान्ति-तीर्थ है। उसमें स्नान से परम निर्मलता प्राप्त होती है। ऋषि धर्म-जलाशय में स्नान कर सर्व-कर्म-मुक्त व उत्तम गति के अधिकारी हुए हैं।
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उत्तराध्ययन सूत्र