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३३. (पुरोहित का कथन-) “(वस्तु-स्वभाव, श्रुत-चारित्र, या दशविध
श्रमणोचित) 'धर्म' तथा 'अर्थ' (शुभाशुभ कर्म-रहस्य, राग-द्वेषादि के कुफल या शास्त्रीय रहस्य) को आप विशेषतः/विविध रूपों में जानने वाले (हैं, और) 'भूतिप्रज्ञ' (सर्वश्रेष्ठ मंगलमयी प्रज्ञा से सम्पन्न, तथा प्राणि-रक्षा हेतु मंगलमयी प्रवृत्ति वाले हैं, अतः आप) कोप नहीं करते। हम सब एकत्रित होकर आए हैं, और
आपके चरणों की शरण ले रहे हैं।" ३४. “हे महाभाग! हम आपकी अर्चना करते हैं। आपका ऐसा कुछ
भी नहीं है जिसकी हम अर्चना न करें। (हमारी विनती यह है कि आप) नाना व्यंजनों से युक्त, 'शालि' चावलों से बने भात (की प्रमुखता वाले अन्नादि) का भोजन (ग्रहण) कीजिए।"
३५. हमारे पास यह प्रचुर अन्न है। हम पर अनुग्रह करने के लिए
आप (उसे) ग्रहण करें।" (पुरोहित की आग्रह भरी विनती को देख कर) महात्मा (हरिकेशबल) ने (कहा-) “अच्छा!” इस प्रकार (भिक्षा लेने की हाँ भरते हुए) मासिक तप के पारणे में आहार-पानी स्वीकार किया।
(MAHODE
३६. वहां (उस आहार-ग्रहण के स्थान पर) तब (अचित्त) सुगन्धित
जल (तथा) पुष्पों की वर्षा दिव्य रूप से (देवों द्वारा निष्पादित) हुई। (साथ ही) वहां दिव्य वसुधारा (धन) की भी वृष्टि हुई। देवों ने दुन्दुभियां बजाईं, और आकाश में 'अहो दानं, अहो दानं,-इस प्रकार का उद्घोष किया।
३७. (सभी विस्मित होकर कहने लगे-) “(यह) तप की विशेषता
(महिमा) तो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रही है, जाति की (तो) कोई विशेषता दिखाई देती नहीं है। (देखो!) यह चाण्डाल-पुत्र मुनि हरिकेश है जिसकी ऋद्धि ऐसी अचिन्त्य शक्ति व प्रभाव वाली है।"
अध्ययन-१२
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