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निर्बाध होता है। शुभ होता है। तेजस्वी होता है। अजेय होता है। प्रभावक होता है। बलशाली होता है। प्रतिष्ठित होता है। धर्म की शोभा होता है। गुण-वृद्धिकारक होता है। लब्धि-सम्पन्न होता है। उत्थान-कारी होता है। पूज्य होता है। यशस्वी होता है। अभय-दायक होता है। मधुर होता है। मुक्ति-प्रदाता होता है। सार्थक होता है।
बहुश्रुत होना बच्चों का खेल नहीं है। गम्भीर चुनौती है। इसे स्वीकार करने के लिये ज्ञान-प्राप्ति की बाधाओं से सचेत रहना जितना आवश्यक है, उतना ही ज्ञान-प्राप्ति के साधक गुणों की साधना करना भी आवश्यक है। अहंकार, क्रोध, प्रमाद, रोग व आलस्य से दूर होना आवश्यक है। गम्भीरता, सच्चरित्रता, रस-परित्याग, सत्य-परायणता व शान्त-दान्त होने की स्थिति को पाना आवश्यक है। मन के घोड़े को यह समझाना आवश्यक है कि उसका मार्ग विषय-भोगों की ओर जाने वाला सुविधाजनक मार्ग नहीं है। उसका मार्ग तप-त्याग की ओर जाने वाला कष्टकर मार्ग है। महत्त्वपूर्ण सांसारिक उपलब्धियां भी सुविधा से प्राप्त नहीं होतीं। वे भी सजग परिश्रम की मांग करती हैं। फिर 'बहुश्रुत' होना तो आत्मा की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। उसके लिये तो तप-त्याग की अपेक्षा स्वाभाविक ही है।
व्यक्तिगत दृष्टि से बहुश्रुत को मोक्षं और सामाजिक दृष्टि से पूजनीय पद-प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। वह स्वयं तो कैवल्य तक पहुंचता ही है, दूसरों को अज्ञान से केवल-ज्ञान तक पहुंचने के लिये सोपान का ज्ञान भी प्रदान करता है। उन की उन्नति का निर्धारण भी करता है। इसलिये बहुश्रुत होना केवल अपने लिये नहीं, दूसरों के लिये भी आवश्यक है। वांछनीय है। धर्मसंघ के लिये भी वांछनीय है।
____बहुश्रुत कौन हो सकता है? कब हो सकता है? कैसे हो सकता है? उसके लिये क्या-क्या न करना और क्या-क्या करना अपेक्षित है? बहुश्रुत होने से क्या होता है? बहुश्रुत होने का आशय और महत्त्व क्या है? बहुश्रुत में कौन-कौन सी विशेषतायें होती हैं? बहुश्रुत का व्यक्तित्व कैसा होता है? इन तथा इन से संबद्ध अन्य अनेक प्रश्नों के उत्तर यहां प्राप्त होते हैं।
ज्ञान प्राप्त करने का ज्ञान प्रदान करने के साथ-साथ 'बहुश्रुत' के प्रति भरपूर आस्था उत्पन्न करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
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अध्ययन-११
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