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१०. पन्द्रह कारणों से (साधक) 'सुविनीत' कहा जाता है। (वे कारण
इस प्रकार हैं-) (१) (जो) नम्र/अनुद्धत होकर बर्ताव करने वाला (या गुरु से नीचे उठने-बैठने आदि की क्रिया करने वाला) हो, (२) (जो) (चलने-बैठने-बोलने आदि में) चपल/चंचल नहीं हो (तथा प्रारब्ध कार्य को पूरा करने में स्थिरचित्त हो), (३) (जो) मायावी (आहारादि-सम्बन्धी छल करने वाला) न हो, और (४) (जो इन्द्रियादि-विषयों व चमत्कार पूर्ण विद्याओं के प्रति, तथा नाटक, खेल-तमाशों आदि को देखने के प्रति) उत्सुकता
न रखने वाला हो। ११. (५) (जो) किसी की निन्दा व तिरस्कार नहीं करता हो (या
धर्म-प्रेरणा आदि कार्यों हेतु आवश्यकतानुरूप निन्दा-तिरस्कार आदि करना आवश्यक ही हो जाय, तो कम से कम करता हो), (६) और (जो) 'प्रबन्ध' (क्रोध को लम्बे समय तक, निरन्तर गांठ बांध कर, उस) को बनाए नहीं रखता हो, (७) मैत्री किये जाने पर कृतज्ञ भाव रखता हो, (८) श्रुत-ज्ञान को प्राप्त कर
'मद' नहीं करता हो। १२. (६) (जो) किसी के 'पाप' (स्खलना या त्रुटि) को (सार्वजनिक
रूप से) प्रकट न करता हो, (१०) (जो) मित्रों पर कुपित नहीं होता हो, (११) (जो) अप्रिय मित्र की भी एकान्त (परोक्ष) में अच्छी व भलाई की बात करता हो (यानी उसके गुणों का ही
वर्णन करता हो)। १३. (१२) कलह व 'डमर' (गाली-गलौज, हाथापाई, मारपीट आदि)
का त्याग करता हो (अर्थात् इन कार्यों से अपने को दूर रखता हो), (१३) (जो) बुद्धिमान् (अवसरज्ञ) व कुलीन हो, (१४) (अनुचित कार्यों में) लज्जाशील (अर्थात् स्वाभाविक संकोच-वृत्ति रखने वाला) हो, (तथा जो) (१५) 'प्रतिसंलीन' (निरर्थक कार्यों में संलग्न न होकर, यथोचित कार्यों में ही प्रवृत्त रहने वाला) हो। (ऐसा-१५ प्रकार की प्रवृत्ति वाला-साधक ही) 'सुविनीत' कहलाता है।
अध्ययन-११
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