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११. इस 'अर्थ' (से भरी बात) को सुनकर, (अपने प्रिय व निजी
अन्तःपुर को दाह से न बचा कर अभिनिष्क्रमण करने से सम्बन्धित) 'हेतु' व 'कारण' (की जिज्ञासा) से प्रेरित होकर तब देवेन्द्र ने 'नमि' राजर्षि से यह कहा
१२.
"भगवन्! यह अग्नि और (यह) वायु है, और (इनके द्वारा) (आपका अपना ही) यह राजभवन (जो) जल रहा है, उसके कारण अन्तःपुर (भी जल रहा है, इस) को आप क्यों नहीं देखते?"
१३. (देवेन्द्र के) इस 'अर्थ' (से भरी बात) को सुनकर (अपने निजी
व प्रिय अन्तःपुर को भी न बचा कर अभिनिष्क्रमण करने से सम्बन्धित) हेतु व कारण (को बताने के उद्देश्य) से प्रेरित 'नमि' राजर्षि ने तब देवेन्द्र को यह कहा:
- १४. ("हे ब्राह्मण!) जिनके (पास अपना) कुछ नहीं होता, ऐसे हम
लोग सुख से रहते हैं और जीते हैं। मिथिला के जलते रहने पर, मेरा (तो अपना) कुछ जल नहीं रहा।"
१५. “पुत्र, पत्नी (आदि) को छोड़ देने वाले, (गृहस्थोचित सावद्य)
व्यापार से मुक्त रहने वाले भिक्षु के लिए न तो कोई (वस्तु) प्रिय होती है, और न ही (कोई) अप्रिय होती है।"
१६. “सभी तरह (के बाह्य व आभ्यन्तर बन्धनों) से मुक्त,
एकान्त-द्रष्टा (अर्थात् एकत्व-भावना में लीन, मोक्ष-साधक रत्नत्रय की साधना में तत्पर, या मोक्ष को लक्ष्य रूप में देखते रहने वाले) अनगार व भिक्षु (भिक्षासेवी) मुनि के लिए (तो) अत्यधिक सुख (या कल्याण ही) है!"
अध्ययन
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