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१८. जैसा कि मैंने परम्परा से सुना है-पुण्यशाली, संयमी व
इन्द्रियजयी (या साधु-गुणधारी) जीवों का मरण प्रसन्नतापूर्वक आकुलता-रहित और (मानसिक) व्याघात-रहित होता है।
१६. यह (सकाम-मरण) सभी गृहस्थों को (तो प्राप्त होता ही नहीं,
सभी भिक्षुओं को (भी) नहीं (प्राप्त होता)। (क्योंकि) गृहस्थ नाना (विविध, अनियत व एकरूपता से रहित) शील (स्वभाव, रुचि, अभिप्राय, व्रत, नियमादि) वाले होते हैं, और भिक्षु भी विषम (पृथक् -पृथक् अनियत विकृत, सातिचार, अति दुर्लक्ष्य)
शील (व्रत-नियमादि) वाले हुआ करते हैं। २०. कुछ-एक (मात्र वेष-धारी) भिक्षुओं से गृहस्थ (भी) संयम की
अपेक्षा आगे (बढ़े) होते हैं, किन्तु (सामान्यतः) सभी गृहस्थों से (सर्वव्रती) साधु संयम में आगे बढ़े हुए (श्रेष्ठ) होते हैं ।
२१. (साधु-दीक्षा) पर्याय को प्राप्त हुए दूषित शील (आचार) वाले
(साधु) की चीवर (वल्कल आदि वस्त्र), चर्म (मृगछाला आदि), नग्नता, जटा, गुदड़ी या उत्तरीय, सिर मुंडाना-ये (बाह्य वेष) भी (नरक में जाने से) रक्षा नहीं करते ।
२२. भिक्षा-वृत्ति से जीविका चलाने वाला (साधु भी यदि) दुःशील है
तो नरक (गति) से नहीं छूट सकता, (जबकि) गृहस्थ हो या भिक्षुक, (यदि वह) सम्यक् व्रत-धारी (है तो) स्वर्ग में जाता है।
२३. श्रद्धालु गृहस्थ (श्रावक) सामायिक के (सभी) अंगों का शरीर
से स्पर्श करे (-अर्थात् सक्रिय आराधना करे)। (कृष्ण व शुक्ल - इन) दोनों पक्षों में (करणीय) प्रौषध (व्रत) को एक (दिन या) रात के लिए (भी) न छोड़े।
अध्ययन-५
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