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अध्ययन-सार :
मरण दो प्रकार का होता है-(1) अकाम मरण, और (2) सकाम मरण। इनमें अज्ञानी व्यक्तियों का 'अकाम-मरण' होता है, और (ज्ञान के अभाव में) अनेक बार होता रहता है, किन्तु 'सकाम मरण' पण्डितों-ज्ञानी जीवों को प्राप्त होता है और उत्कृष्ट रूप से ज्ञान-सम्पन्न केवली सर्वज्ञ को एक ही बार प्राप्त होता है। प्रथम अकाम मरण के अधिकारी वे अज्ञानी जीव होते हैं जो परलोक की उपेक्षा करते हुए विषयासक्त, सप्रयोजन या निष्प्रयोजन हिंसा आदि क्रूर कर्म करने वाले एवं तन-मन-वचन से कर्म-मल को संचित करने वाले होते हैं और मृत्यु के समय रोगादि से ग्रस्त होकर दुष्कर्मों के भावी दुष्फल को प्राप्त करते हैं। नरक आदि की भीषण यातनाओं की कल्पना से ही उसकी सन्तप्त मनोदशा उस गाड़ीवान की तरह होती है जो मार्ग में ही गाड़ी की धुरा टूट जाने पर शोक-सन्तप्त होता रहता है या उस जुआरी की तरह होती है जो जुए में अपना सर्वस्व हार चुका होता है।
इसके विपरीत पुण्यवान् व संयमी व्यक्तियों को जो सकाम मरण प्राप्त होता है, जो विषाद से रहित व प्रसन्नता से पूर्ण होता है। यह सभी अणुव्रती गृहस्थों एवं सभी व्रती साधुओं को भी प्राप्त नहीं हो पाता, क्योंकि दुराचारी साधुवेश व्यक्ति को भी नरक की यातनाएं भोगनी पड़ती हैं। सुव्रती श्रद्धावान् गृहस्थ भी सामायिक साधना व अणुव्रतों-शिक्षाव्रतों की आराधना करता हुआ भय रहित सकाम मृत्यु का वरण कर स्वर्ग में जाता है। संत्रास-रहित सकाम मृत्यु का वरण करने वाले संयमी साधु की दो स्थितियां सम्भावित हैं। या तो वह कर्म-क्षय कर मुक्ति प्राप्त करते हैं, या उच्च देव-लोकों में जाते हैं। अत: साधक के लिए उचित है कि उक्त दोनों मरणों की दोष-गुण-विषयक तुलना करते हुए, क्षमा-भाव से दया-धर्म की उत्तरोत्तर वृद्धि और मृत्यु-समय संल्लेखना आदि द्वारा शरीर-मोह का त्याग कर 'सकाम मरण' का वरण करे।
उत्तराध्ययन सूत्र