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से अग्रसर होना है। मुक्ति के आनन्द को शरीर में रहते हुए भी अनुभव करना है, शरीर छोड़ते हुए भी अनुभव करना है और शरीर छोड़ने के बाद भी अनुभव करना है। सत्य को सत्य और असत्य को असत्य समझना है। भ्रान्तियों और भटकावों से स्वयं को सुरक्षित रखना है। मोह और आसक्ति से मुक्त होना है। कषायों से मुक्त होना है। राग-द्वेष से रहित होना है। आकांक्षा से मुक्त होना है। परिग्रह, चोरी, हिंसा, काम-वासना और मिथ्यात्व से मुक्त होना है। सभी बाह्य और आभ्यन्तर बन्धनों से, बन्धनों के मूल कारणों से, मुक्त होना है। सर्व-बन्धन-मुक्त आचरण ही आत्मा को कर्मों से मुक्त कर निर्मल स्वरूप प्रदान करने में सक्षम है। ऐसे आचरण से सम्पन्न साधक को सुख-दु:ख नहीं व्यापते। समभाव उसका स्वभाव बन जाता है। अप्रमत्त भाव
से वह कर्म-मुक्ति-यात्रा में दत्त-चित्त रहता है। उसकी आत्मा उज्ज्वलतर | होती चली जाती है।
उज्ज्वलतर होते रहने की इस प्रक्रिया के साकार होने में सबसे बड़ी बाधा है-अविद्या। अविद्या का अर्थ है-अज्ञान में ज्ञान का भ्रम होना। यह भ्रम यदि जीवन का सत्य हो तो ज्ञान-प्राप्ति की सम्भावना भी नष्ट हो जाती है। ज्ञान के अभाव में ज्ञान के अनुरूप आचरण का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। ऐसे में परतन्त्रता से ही जीवन संचालित होने लगता है। अंतर्बाह्य बन्धन प्रबल होते चले जाते हैं। सुख-दु:ख और जन्म-मृत्यु के बीच भटकते रहना ही जीवात्मा का सत्य बन जाता है। दुर्गतियां उसके लिए हाथ फैलाये खड़ी रहती हैं। कर्म उसे घेरते ही चले जाते हैं।
अविद्या से सजग रहते हुए विद्या से सम्पन्न होने की प्रबल प्रेरणा व प्रशस्त राह प्रदान करने के साथ-साथ एक क्षुल्लक या नवदीक्षित मुनि को निर्ग्रन्थ होने के साधना-शिखर तक पहुंचाने के लिए सोपान प्रदान करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
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अध्ययन-६