Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
पुनः कषायग्रहणमनुवाद इति चेन्न, कर्मविशेषाशयवाचित्वाज्जठराग्निवत् । जीवाभिधानं प्रचोदितत्वात्, जीवस्य हि कथममूर्तेरहस्तस्य कर्मणा बंध इति परैः प्राचोदि ततो जीव इत्यभिधीयते । जोवनाविनिर्मुक्तत्वाद्वा, जीवनं यायुस्तेनाविनिर्मुक्त एवात्मा कर्म पुद्गलानावत्तेऽतश्च जोवाभिधानं युक्तं ।
यहां शंका है कि पहिले सूत्र में कषाय पद पड़ा हुआ हो है पुनः इस सूत्रमें कषाय शद्वका ग्रहण किया गया है, यह तो केवल पूर्व का अनुवाद है, स्वयं अपना अनुवाद करना तो सूत्रकारका व्यर्थ प्रयत्न है, आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, क्योंकि जठराग्निके समान कषाय विशेषोंके आशय को कह रहा यह कषाय शब्द है। अर्थात् खाये पीये गये पदार्थकी उदराग्निके आशय अनुसार जैसे तीव, मन्द, मध्यम रसोंको लिये हुये स्थिति और अनुभव होते हैं, इसी प्रकार आत्मामें तीव्र, मन्द, मध्यम स्वरूप स्थिती और अनुभव बंध होते हैं। अत: बंध के हेतुओंमे कहे गये भी कषायों की स्थिति अनुभागोंमें विशेषता कराने के लिये पुनः इस सूत्रमें कषाय शब्दका निर्देश किया गया है । यहां कोई आक्षेप करता है कि जीव ही तो कर्मोको बांधता है इस बात को मन्दबुद्धि प्राणि भी जानता है, पुनः सूत्रकार ने अत्यंत संक्षिप्त हो रहे सूत्रमे व्यर्थ जोव शब्दको क्यों कहा है ? इसके उत्तर मे आचार्य कहते हैं कि जो कोई वादी यों कुचोद्य कर रहा है कि मूर्तिरहित और हाथपांवरहित बिचारा जीव किस प्रकार कर्मोकों ग्रहण कर लेता है, किस प्रकार बंधवान हो जाता है, जब कि शरीररहित अमूर्त आकाश बिचारा वध को प्राप्त नहीं होता है, ऐसी चर्चा उठनेपर सूत्रकारको जीव शब्द कहना पड़ा है। अमूर्ति, हस्तरहित जीव भला कर्म करके किसप्रकार बंध को प्राप्त हो जाता है ? इस प्रकार दुसरे वादियोंने प्रकृष्ट कुचोद्य उठाया था, तिसकारण सूत्रमें जीदपद कहा गया है, जीवन से नहीं विनिर्मुक्त होनेसे यह प्रमाण का विषय हो रहा सूर्त संसारी जीव पौद्गलिक कर्मोको बांधता हैं । जीवन तो नियमसे आयुष्य है, उससे विशेषतया नहीं छूट रहा ही यानी आयुष्यधारी ही संसारी आत्मा कर्मपुद्गलोंका आदान करता है, आयुके संबन्ध विना शुद्ध जीव कर्मोको नहीं बांधता है, अतोपि सूत्रमें, जीवपदका कथन करना समुचित है । अर्थात् कर्मोंको ग्रहण कर रहा जीव कथमपि अमूर्त नहीं है। मूर्त ही जीव मूर्त कर्मोको बांध रहा है, बांधनेमे हाथ की कोई आवश्यकता नहीं है । उष्णलोहेका गोला चारो ओरसे पानी को खींच लेता है, अंगोपांगरहित हो रहा चुंबकपाषाण लोहेको खींच लेता है, इसी प्रकार संसारो मूर्त आत्मा भी स्वकीय परिणाम हो रहे योगों करके