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स्वयम्भू स्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥
यहाँ स्तोता कहता है कि मोक्षमार्गनेतृत्व, कर्मभूभृद्भेतृत्व और विश्वतस्वज्ञातृत्व ये तीन विशिष्ट गुण जिस आराध्य देवमें पाये जाते हैं मैं उन गुणोंकी प्राप्ति के लिए उनकी वन्दना करता हूँ ।
जिनेन्द्र देवकी स्तुतिका प्रयोजन है— आत्माको पवित्र करना । संसारी प्राणीकी आत्मा रागादि दोषों तथा ज्ञानावरणादिरूप कर्मकलंकसे सदा अपवित्र रहता है | अतः जिनेन्द्र भगवान् के पुण्य गुणोंका स्मरण तथा कीर्तन आत्माकी अपवित्रताको दूर कर उसे पवित्र करता है । स्तुति करने से वीतराग भगवान् प्रसन्न नहीं होते हैं । इसलिए उनकी स्तुति करनेका प्रयोजन न तो उन्हें प्रसन्न करना है और न उनकी प्रसन्नता द्वारा अपना कोई कार्य सिद्ध करना है । किन्तु श्रद्धापूर्वक स्तुति करनेवाले व्यक्ति के परिणामों में निर्मलता आती है और उस निर्मलतासे पापोंका क्षय तथा पुण्यका बन्ध होता है । अतः यह कहा जा सकता है कि जिनेन्द्र देवकी स्तुति स्तोताके पुण्य प्रसाधक तथा पवित्रता विधायक कुशल परिणामोंकी कारण अवश्य होती है । इसी बातको 'स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशल परिणामाय' इस वाक्यके द्वारा कहा गया है ।
स्तुतिका फल :
यहाँ इस बात पर विचार करना है कि स्तुतिका कोई फल मिलता है या नहीं । स्तुतिकर्ताको स्तुति का फल मिले या न मिले किन्तु प्रत्येक अन्तरात्माको किसी फलाकांक्षा के बिना निष्काम भावसे अपने आराध्य देवकी स्तुति अवश्य करना चाहिए । हमारे आराध्य वृषभादि चौबीस तीर्थंकर हैं और उनकी स्तुति करना हमारा पुनीत कर्तव्य है । लोकनायक श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
प्रत्येक मानवका अधिकार कर्म करने में है, फलमें नहीं । यही बात स्तुति के सम्बन्ध में भी ध्यान देने योग्य है । यदि भक्तिपूर्वक आराध्य देवकी स्तुति की जायेगी तो उसका फल अवश्य मिलेगा, किन्तु सांसारिक वैभव आदिको कामनासे स्तुति नहीं करना चाहिए । यदि कोई व्यक्ति किसी सांसारिक वस्तु धन, पुत्रादिकी कामनासे जिनेन्द्र भगवान्की स्तुति करता है तो उसका ऐसा करना उचित नहीं है । क्योंकि वीतराग और निर्ग्रन्थ होनेसे जिनेन्द्र देवके पास देने योग्य कुछ भी नहीं है । फिर भी विवेक पूर्वक शुभ भावोंसे की गयी स्तुतिका फल स्तोताको अवश्य मिलता है ।
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