Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांम सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
वासुदेवो यणं भणइ, लुत्तकेसं जिइंदियं । इच्छिय-मणोरहं तुरियं, पावसुतं दमीसरा । २५ । इसी प्रकार का आशीर्वाद राजीमती को भी दिया था। यथावासुदेवो य णं भणइ, लुत्तकेसं जिइंदियं ।। संसार सागरं घोरं, तर कण्णे! लहुं लहुं । ३१ ।
(उत्तरा०२२) अरिष्टनेमि और राजीमती दोनों महारुपुषों ने भी इस आशीर्वाद को उसी जन्म में सफल कर दिया अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर जन्म-मरण के चक्कर को सदा सदा के लिये काट दिया।
इहलोक भय आदि सात भय बतलाये गये हैं। उसमें पूर्वाचायों का कथन है कि - .. . "सात भय संसार ना तिण में मरण भय मोटो रे"
किन्तु ज्ञानियों के लिये मरण का भय मोटा नहीं है अपितु वे तो मरण को मृत्यु महोत्सव मान कर उसका मित्र रूप में स्वागत करते हैं। यथा -
जगत मरण से डरत है, मो मन बड़ा आनन्द । कद मरसां कद भेटसां, पूरण परमानन्द ॥ ज्ञानी पुरुष तो मृत्यु से डरने वालों को सम्बोधित कर कहते हैंमृत्योर्बिभेषि किं मूढ ! भीतं मुञ्चति मो यमः । अजातं नैव गृह्णाति, कुरु यत्नमजन्मनि ॥ अर्थ - मृत्यु से क्यों डरत है, मृत्यु छोड़त नाय...
अजन्मा मरता नहीं, कर यल नहीं जन्मायं ॥ जन्म के विषय में ऐसा कहा है - मन्येजन्मैव धीरस्य भूयो भूयस्त्रपाकरम् ॥ ..
अर्थात् अपने आपको धीर और वीर मानने वाले पुरुष के लिये यही बड़ी लज्जा की बात है कि वह बारम्बार जन्म लेता रहता है। उसकी धीरता और वीरता तो इसीमें है कि वह जन्म को जड़ से उखाड़ फेंके । अर्थात् आठों कर्मों को इसी भव में क्षय करके मोक्ष प्राप्त करले ताकि फिर जन्मना ही न पड़े।
॥इति पहला उद्देशक॥
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