Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 दुहराई गई है। इससे हमें जैनधर्म की एक विशेषता का संकेत मिलता है-वह है अहिंसा में ही तमाम गुणों का समावेश कर लेना । पूर्वाचार्य इसी विशेषता से प्रेरित होकर कह गये हैं कि -
जस्स दया तस्स गुणा, जस्स दया तस्स उत्तमो धम्मो। जस्स दया सो पत्तो, जस्स दया सो जए पुग्जो॥ १॥ जस्स दया सो तवस्सी, जस्स दया सो सील-संपत्ति। जस्स दया सो णाणी, जस्स दया तस्स निव्वाणं ॥२॥
अर्थ - जिस पुरुष के हृदय में दया है उसी में गुण, उत्तम धर्म, शान्ति की प्राप्ति आदि गुण टिकते हैं वही पूज्य है, वही तपस्वी है, वही शील सम्पन्न है, वही ज्ञानी है और उसी को निर्वाण (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। अतः जैन धर्म अहिंसा (दया) प्रधान धर्म है। दया और अहिंसा एकार्थक शब्द हैं । जो केवल मानवों के लिये ही हितकारी हो वही धर्म है-यह नहीं पर-प्राणी मात्र के लिये हितकारी हो वही धर्म है । स्वाश्रय-आत्माश्रय के बिना प्राणी मात्र का हित नहीं साधा जा सकता है; अतः अकिञ्चन-वृत्ति पर जोर देना योग्य ही है । सबके हित की बात इसीलिये कही जाती है कि पराये अहित की भावना से आत्मा की विभाव-रमणता बढ़ती है - फिर आत्म-रमणता के नाम पर जहाँ प्रवृत्ति में पर दया की उपेक्षा है वहाँ स्वभाव-स्थिति को निश्चय की ओट में कल्पना की क्रीड़ा ही समझना चाहिए । इस प्रकार जिस सिद्धान्त में स्व-पर-दया का सामञ्जस्य पूर्ण समन्वय हो उसी सिद्धान्त में और उसके अनुसार आचरणों में ही धर्म है, समाधि है और वही सच्चा मार्ग है ।
इस अध्ययन में वर्णित गुणों को ध्यान करने वाला शांत मुनि मुक्ति को प्राप्त करता है।
॥मार्ग नामक ग्यारहवां अध्ययन समाप्त॥
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