Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 317
________________ ३०४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पौषध में भी करण-योग और समय की अपेक्षा श्रावक के सम्पूर्ण दया नहीं होती है। अतः उसको सम्पूर्ण दया की ओर प्रेरित करने के लिए दया पालो कहना उचित ही लगता है। 'धर्मलाभ' शब्द आशीर्वाद वचन है अर्थात् वंदन करने से तुम्हें धर्म का लाभ होगा। परन्तु यह शब्द खास अहिंसा आदि धर्म करने की प्रवृत्ति की ओर प्रेरित नहीं करता है, केवल वंदन रूप विनय प्रवृत्ति का ही प्रेरक है। अतः अहिंसा आदि प्रवृत्ति में प्रेरित करने वाले 'दया पालो' शब्द का प्रयोग - विशेष उचित लगता है। मुनिराज के लिए तो यह प्रसिद्ध है - 'लेवे एक, न देवे दोय' अर्थात् - मुनिराज एक संयम ग्रहण करते हैं अथवा सिर्फ एक परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं इसलिए लेते 'एक हैं' और 'दो नहीं देते' अर्थात् किसी पर नाराज होकर उसे दुराशीष नहीं देते हैं और किसी पर प्रसन्न होकर उसे शुभाशीष भी नहीं देते हैं, किन्तु राग द्वेष की प्रवृत्ति से दूर रहते हुए मध्यस्थ वृत्ति रखते हैं ॥ १९ ॥ भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणे, ण णिव्वहे मंत-पएण गोयं । - ण किंचिमिच्छे मणुए पयासुं, असाहु-धम्माणि ण संवएज्जा ॥ २० ॥ . कठिन शब्दार्थ - भूयाभिसंकाइ - प्राणीवध की शंका से, दुगुंछमाणे - घृणा (जुगुप्सा) करता हुआ, णिव्वहे - निर्वाह करे, मंतपएण - मंत्र पद के द्वारा, पयासु - प्रजा से, इच्छे - इच्छा करे, असाहुधम्माणि - असाधु के धर्मों का, संवएज्जा- कहे। . - भावार्थ - पाप से घृणा करता हुआ साधु प्राणियों के विनाश की शङ्का से किसी को आशीर्वाद न देवे तथा मन्त्रविद्या का प्रयोग करके अपने संयम को नि:सार न बनावे एवं वह प्रजाओं से किसी वस्तु की इच्छा न करे तथा वह असाधुओं के धर्म का उपदेश न करे । विवेचन - मुनिराज वाणी पर संयम रखने वाला होता है इसलिए पाप सहित वस्तु में घृणा करता हुआ साधु प्राणियों के विनाश की आशंका से किसी को दुराशीष अथवा आशीर्वाद वाक्य न कहे तथा मंत्र आदि का प्रयोग करके संयम को निःसार न बनावे। धर्मोपदेश देता हुआ साधु श्रोताओं से लाभ पूजा और सत्कार आदि की इच्छा न करे तथा साधुता से विपरीत उपदेश न देवे॥ २० ॥ हासं-पि णो संधइ पावधम्मे, ओए तहियं फरुसं वियाणे । णो तुच्छए णो य विकथइज्जा, अणाइले. या अकसाई भिक्खू ॥ २१ ॥ . कठिन शब्दार्थ - हासं पि - हास्य से भी, पावधम्मे - पाप धर्म की, तहिय - सत्य वचन को, फरुसं - कठोर, तुच्छए - तुच्छता, विकंथइजा - प्रशंसा करे, अणाइले - निर्मल, अकसाई- अकषायी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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