Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भावार्थ - पूर्वोक्त पच्चीस प्रकार की अथवा बारह प्रकार की भावना से जिसका आत्मा शुद्ध हो गया है वह पुरुष जल में नाव के समान कहा गया है । जैसे तीरभूमि को पाकर नाव विश्राम करती है इसी तरह वह पुरुष सब दुःखों से छूट जाता है ।
विवेचन उत्तम भावना के योग से जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है वह पुरुष संसार के सब झंझटों को छोड़कर जल में नाव की तरह संसार सागर के ऊपर रहता है। जैसे नाव जल में नहीं डूबती है, इसी तरह वह पुरुष भी संसार सागर में नहीं डूबता है। जैसे निपुण कर्णधार (नाव का खिवैया) युक्त और अनुकूल पवन से प्रेरित नाव सब प्रकार के विघ्न बाधाओं से रहित होकर तीर पर पहुँच जाती है इसी तरह शुद्ध चारित्रवान् जीव रूपी नाव सर्वज्ञोक्त आगम रूप कर्णधार से युक्त तथा तप रूपी पवन प्रेरित होकर दुःख रूपी संसार से छूट कर समस्त दुःखों के अभाव रूप मोक्ष को प्राप्त कर लेती है ॥ ५ ॥
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अध्ययन १५
तिउट्टइ उ मेहावी, जाणं लोगंसि पावगं । तुट्टंति पाव-कम्माणि, णवं कम्म मकुव्वओ ॥ कठिन शब्दार्थ जाणं जानने वाला, लोगंसि - लोक में, पावगं नया, कम्मं कर्म, अकुव्वओ- नहीं करने वाला ।
६ ॥
भावार्थ - लोक में पाप कर्म को जानने वाला पुरुष सब बन्धनों से मुक्त हो जाता है तथा
नूतन कर्म न करने वाले पुरुष के सभी पापकर्म छूट जाते हैं !
विवेचन मुनि मर्यादा में स्थित मुनि एवं सत्-असत् का विवेकी पुरुष आठ प्रकार के कर्मों को एवं उनके कारणों को त्यागता हुआ मुक्त हो जाता है क्योंकि उत्कृष्ट तप करते हुए मुनि के पूर्व संचित पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं और जो पुरुष नूतन कर्म नहीं करता है उसके समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है ॥ ६ ॥
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कुव्व णवं णत्थि, कम्मं णाम विजाणइ । विण्णाय से महावीरे, जेण जाइ ण मिज्जइ ॥ ७ ॥ कठिन शब्दार्थ - विजाणइ - जानता है, विण्णाय मिज्जइ मरता है ।
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पाप को, णवं
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जान कर, जाइ जाति जन्म,
भावार्थ जो पुरुष कर्म नहीं करता है उसको नूतन कर्मबन्ध नहीं होता है । वह पुरुष अष्टविध कर्मों को जानता है । वह महावीर पुरुष आठ प्रकार के कर्मों को जानकर ऐसा प्रयत्न करता है जिससे वह संसार सागर में न तो कभी उत्पन्न होता है और न मरता है ।
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