Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 330
________________ अध्ययन १५ कठिन शब्दार्थ - सुद्धं - शुद्ध, अक्खंति आख्यान (व्याख्या) करते हैं, पडिपुण्णं प्रतिपूर्ण, अणेलिसं - अनुपम, जम्मकहा- जन्म कथा (पुनर्जन्म) । भावार्थ जो पुरुष प्रतिपूर्ण, सर्वोत्तम और शुद्ध धर्म की व्याख्या करते हैं और स्वयं आचरण करते हैं वे सर्वोत्तम पुरुष सब दुःखों से रहित स्थान अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करते । उनके जन्म लेने और मरने की बात भी नहीं है। अर्थात् मोक्ष में गया हुआ जीव फिर जन्म मरण नहीं करता है । विवेचन - जैसे बीज जल जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता है इसी तरह कर्म रूपी बीज जल जाने पर संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है अर्थात् मोक्ष में गया हुआ जीव फिर संसार में नहीं आता है। कओ कयाइ मेहावी, उप्पज्जति तहागया । तागया अप्पडण्णा, चक्खू लोगस्सणुत्तरा ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - उप्पज्जंति - उत्पन्न होते हैं, तहागया- तथागत, अप्पडिण्णा अप्रतिज्ञ निदान रहित, लोगस्स - लोक के, अणुत्तरा - सर्वोत्तम । भावार्थ - इस जगत् में फिर नहीं आने के लिये मोक्ष में गये हुए ज्ञानी पुरुष कभी भी किस प्रकार इस जगत् में उत्पन्न हो सकते हैं ? निदान न करने वाले तीर्थंकर और गणधर आदि, प्राणियों के सर्वोत्तम नेत्र हैं । ३१७ 0000000 विवेचन - ऊपर यह बता दिया गया है कि मोक्ष में गया हुआ जीव वापिस संसार में नहीं आता है सर्वज्ञ पुरुष पदार्थ का यथा स्वरूप बताने के कारण प्राणियों के लिए सबसे उत्तम नेत्र के समान है। . अणुत्तरे य ठाणे से, कासवेण पवेइए । जं. किच्चा णिव्वुडा एगं, णिट्टं पावंति पंडिया ॥ २१ ॥ कठिन सब्दार्थ - ठाणे स्थान का, णिव्वुडा - निर्वृत- संसार का अंत करने वाले, णि मोक्ष को, पावंति - प्राप्त करते हैं। भावार्थ - काश्यप गोत्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहा हुआ संयम नामक स्थान सबसे प्रधान है । पंडित पुरुष इसको पालकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं और वे संसार के अन्त को प्राप्त करते हैं । 1 - विवेचन काश्यप गोत्र में उत्पन्न काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया है कि दो स्थान अनुत्तर अर्थात् सर्वोत्कृष्ट है संयम और मोक्ष । शुद्ध संयम का पालन करके मुनि मोक्ष को प्राप्त करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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