Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्धः ।
विवेचन - जो ऊपर श्रमण माहण निर्ग्रन्थ और भिक्षु के गुण कहे हैं, उन सब गुणों से युक्त है तथा राग द्वेष से रहित, आत्म स्वरूप को जानने वाला, बुद्ध-ज्ञानी, आस्रव द्वारों को सर्वथा रोक देने वाला, १७ प्रकार के संयम से युक्त, ५ समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, समभावी, आत्मवाद को जानने वाला अर्थात् आत्मा के स्वरूप को समझने वाला, विद्वान, द्रव्य स्रोत और भाव स्रोत को रोकने वाला, पूजा सत्कार और लाभ को नहीं चाहने वाला, धर्मार्थी, धर्मज्ञ, अपनी आत्मा को मोक्ष मार्ग में लगाने वाला, समताधारी, इन्द्रियों का दमन करने वाला, द्रव्य (भव्य) मोक्ष जाने की योग्यता वाला, शरीर की ममता से रहित, बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। . इस श्रुतस्कंध की शुरूआत 'बुझह' शब्द से हुई और 'भयंतारो' शब्द पर समाप्ति । दोनों शब्दों को मिलाने से यह सुन्दर अर्थ निकलता है- भव्यो ! बोध को प्राप्त करो। बोध को प्राप्त करने से एक दिन तुम अभय (निर्भय) बन जाओगे। (यदि जागे तो) भय को पार करने वाले-निर्भय हो जाओगे'
और यही तो इस सूत्र के प्रतिपादन का विषय है । प्रमाद को त्यागने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञानी अपने ज्ञान के अनुसार आचरण करके भय से मुक्त हो सकता है। बुज्झह' शब्द से 'ज्ञान और क्रिया' दोनों का संकेत मिलता है और सद्ज्ञान तथा क्रिया के सङ्गम से होने वाले फल का संकेत भयंतारो' शब्द से मिलता है।
- इति ब्रवीमि - . अर्थात् श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि - हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। मैं अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ।
॥गाथा नामक सोलहवाँ अध्ययन समाप्त॥
● प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त • * पहला भाग समाप्त *
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