Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 328
________________ अध्ययन १५ ३१५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - अंताणि - अंत प्रांत, अंतकरा - अंत करने वाले, धम्मं - धर्म की, आराहिउं - आराधना करके, माणुस्सए ठाणे - मनुष्य लोक में । भावार्थ - विषय सुख की इच्छा रहित पुरुष अन्तप्रान्त आहार का सेवन करके संसार का अन्त करते हैं । इस मनुष्य लोक में धर्म का सेवन करके जीव संसार सागर से पार हो जाते हैं। . विवेचन - विषय वासना और कषाय की इच्छा से रहित पुरुष अंत प्रान्त आहार का सेवन करते हैं। अथवा संसार का कारण जो कर्म है उनका अन्त करके मुक्ति प्राप्त करते हैं ॥१५ ॥ णिट्ठियट्ठा व देवा वा, उत्तरीए इयं सुयं । सुयं च मेयमेगेसिं, अमणुस्सेसु णो तहा ॥ १६ ॥ कठिन शब्दार्थ - णिट्ठियट्ठा - निष्टितार्थ-मुक्त होता है, उत्तरीए - लोकोत्तर प्रवचन में, सुयं - सुना है, अमणुस्सेसु - मनुष्य से भिन्न गति वाले । भावार्थ - मैंने तीर्थंकर से सुना है कि - मनुष्य ही कर्मक्षय करके सिद्धि को प्राप्त होता है अथवा देवता होता है परन्तु दूसरी गतिवाले जीवों की ऐसी योग्यता नहीं होती है । .. विवेचन - गतियां चार कही गई हैं यथा - नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति, देव गति। इनमें से नरक गति और देव गति के जीव तो मर कर मनुष्य और तिर्यञ्च में ही जाते हैं। तिर्यञ्च गति के जीव मर कर अधिक से अधिक ८ वें देवलोक तक जा सकते हैं किन्तु मुक्ति में तो ये तीन गति के जीव नहीं जा सकते। सिर्फ मनुष्य गति की ही यह विशेषता है कि मनुष्य समस्त कर्मों का क्षय करके उसी भव में मुक्ति प्राप्त कर सकता है। मनुष्य से भिन्न ये तीन गतियाँ हैं। उनमें सम्यक् चारित्र का परिणाम न होने से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। अंतं करंति दुक्खाणं, इहमेगेसि-माहियं । आघायं पुण एगेसिं, दुल्लहेऽयं समुस्सए ॥ १७॥ कठिन शब्दार्थ - दुक्खाणं - दुःखों का, आघायं - कथन, दुल्लहे - दुर्लभ, समुस्सए - समुच्छ्य -मनुष्य भव का शरीर। भावार्थ - तीर्थङ्कर भगवन्तों का कथन है कि मनुष्य ही समस्त दुःखों का नाश कर सकते हैं दूसरे प्राणी नहीं । प्रथम तो मनुष्यभव प्राप्त करना बड़ा कठिन है । - विवेचन - समस्त कर्मों का क्षय कर उसी भव में मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता सिर्फ मनुष्य में ही है। बौद्ध आदि किन्हीं मतावलम्बियों का कथन है कि देवता ही उत्तरोत्तर उत्तम स्थानों को प्राप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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