Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 321
________________ ३०८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ से सुद्ध-सुत्ते उवहाणवं च, धम्मं च जे विंदइ तत्थ तत्थ । आदेग्ज-वक्के कुसले वियत्ते, स अरिहइ भासिउं तं समाहिं । तिबेमि॥ २७ ॥ कठिन शब्दार्थ - सुद्ध सुते - शुद्धता पूर्वक सूत्र का उच्चारण करने वाला, उवहाणवं - तपस्वी, विंदइ - अंगीकार करता है, आदेज - आदेय-ग्रहण करने योग्य, वक्के - वाक्य वाला, वियत्तेव्यक्त, अरिहइ - व्याख्या कर सकता है, भासिठं- कहने के लिए, समाहि- समाधि का । भावार्थ - जो साधु शुद्धता के साथ सूत्र का उच्चारण करता है तथा शास्त्रोक्त तप का अनुष्ठान करता है एवं जो उत्सर्ग के स्थान में उत्सर्ग रूप धर्म को और अपवाद के स्थान में अपवादरूपं धर्म को स्थापित करता है वही पुरुष ग्राह्यवाक्य है अर्थात् उसी की बात मानने योग्य है । इस प्रकार अर्थ करने ' में निपुण तथा बिना विचारे कार्य न करनेवाला पुरुष ही सर्वज्ञोक्त भावसमाधि का प्रतिपादन कर सकता है एवं भाव समाधि को प्राप्त कर सकता है। - इति ब्रवीमि - अर्थात् - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने . श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। मैं अपनी मनीषिका. (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ। ॥ग्रन्थ नामक चौदहवां अध्ययन समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338