Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 312
________________ अध्ययन १४ २९९ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - वर्णसि - वन में, मूढस्स - दिग्मूढ व्यक्ति के, मग्गाणुसासंति - मार्ग की शिक्षा देते हैं, हियं - कल्याणकारी, पयाणं - प्रजा को, समणुसासयंति - सम्यक् शिक्षा देते हैं । - भावार्थ - जैसे जङ्गल में भूला हुआ पुरुष मार्ग जानने वाले के द्वारा मार्ग की शिक्षा पाकर प्रसन्न होता है और समझता है कि- उस उपदेश से मुझ को कल्याण की प्राप्ति होगी इसी तरह उत्तम मार्ग की शिक्षा देने वाले जीव के ऊपर साधु प्रसन्न रहे और यह समझे कि ये लोग जो उपदेश करते हैं इसमें मेरा ही कल्याण है। - विवेचन - जिस प्रकार जंगल में मार्ग भूले हुए व्यक्ति को कोई दयालु सज्जन उसे नगर का सही मार्ग बता दे तो वह उसका उपकार मानता है। इसी प्रकार असंयम मार्ग में प्रवृत्त साधु को यदि कोई सन्मार्ग की शिक्षा. दे तो उसे उस पर क्रोध नहीं करना चाहिए किन्तु उसका उपकार मानना चाहिए उसको यह समझना चाहिए कि जैसे माता-पिता अपने पुत्र को अच्छे मार्ग की शिक्षा देते हैं इसी तरह ये लोग भी मुझे सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा देते हैं। अतः ये मेरे पर उपकार करते हैं इसमें मेरा ही कल्याण है ॥ १० ॥ : अह तेण मूढेण अमूढगस्स, कायव्वा पूया सविसेस-जुत्ता । एओवमं तत्थ उदाहु वीरे, अणुगम्म अत्थं उवणेइ सम्मं ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - कायव्या - कर्त्तव्य करनी चाहिये, पूया - पूजा, सविसेसजुत्ता - विशेष रूप से, एओवमं - यही उपमा, अणुगम्म - समझ कर, उवणेइ - उपनय (स्थापित) करता है । भावार्थ - जैसे मार्गभ्रष्ट पुरुष मार्ग बताने वाले की विशेष रूप से पूजा करता है इसी तरह सन्मार्ग.का उपदेश देने वाले पुरुष का संयम पालन में भूल करने वाला साधु विशेष रूप से सत्कार करे और उसके उपदेशं को हृदय में स्थापित करके उसका उपकार माने यही उपदेश तीर्थंकर और गणधरों ने दिया है । विवेचन - जैसे जंगल में मार्ग भूले हुए व्यक्ति को सही मार्ग बताने वाला तथा अग्नि से जलते हुए मकान में सोये हुए पुरुष को जगाने वाला एवं विष से मिश्रित मधुर आहार को खाने के लिए तत्पर पुरुष को उस आहार को सदोष बताकर सोने से निवृत्त करने वाला पुरुष उसका परम उपकारी है इसी तरह संयम पालन में भूल करने वाले साधु को जो सन्मार्ग का उपदेश करता है वह उसका परम उपकारी है एवं परम बन्धु है । यही बात इन गाथाओं में कही गई हैं - यथा - गेहंमि अग्गिजालाउलंमि जह णाम डण्झमाणंमि। जो बोहेइ सुयंतं सो तस्स जणो परमबंधू ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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