Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 314
________________ सया 0000000000000000000 सदा, जए - यत्न पूर्वक, परिव्वज्जा संयम पालन करे, मणप्पओसं मन से भी द्वेष, अविकंपमाणे - संयम में निश्चल दृढ रहे । भावार्थ - ऊपर नीचे तथा तिरछी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी निवास करते हैं उनकी हिंसा जिसमें न हो ऐसा यत्न करता हुआ साधु संयम पालन करे तथा मन सें भी उनके प्रति द्वेष न करता हुआ संयम में दृढ़ रहे । विवेचन - संसार में सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, त्रस और स्थावर सभी प्रकार के प्राणियों की तीन करण-तीन योग से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से हिंसा न करे । इसी प्रकार सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पांचों महाव्रतों का सम्यक्त्व रूप से पालन करे ॥ १४ ॥ . कालेण पुच्छे समियं पयासु, आइक्खमाणे दवियस्स वित्तं । कठिन शब्दार्थ - कालेण वाले, दवियस्स - सर्वज्ञं के, वित्तं कर, इमं - इसको । तं सोयकाची य पुढो पवेसे, संखा इमं केवलियं समाहिं ॥ १५ ॥ समय देख कर, पुच्छे - पूछे, आइक्खमाणे - उपदेश करने मार्ग को, पवेसे स्थापित करे, संखा सम्यक् रूप से जान भावार्थ - साधु अवसर देख कर सदाचारी आचार्य से प्राणियों के सम्बन्ध में प्रश्न करे और सर्वज्ञ के आगम का उपदेश करने वाले आचार्य का सन्मान करे तथा आचार्य्य की आज्ञानुसार प्रवृत्ति करता हुआ साधु आचार्य्य के द्वारा कहे हुए केवली सम्बन्धी ज्ञान को सुन कर उसे हृदय में धारण करे । विवेचन - गाथा में दिये 'दवियस्स' शब्द का अर्थ दिये है- द्रव्य के यहाँ द्रव्य से आशय सर्वज्ञ से है क्योंकि मुक्ति जाने योग्य भव्य पुरुष को द्रव्य कहते हैं अथवा राग द्वेष रहित वीतराग अथवा तीर्थंकर भगवान् को द्रव्य कहते हैं। प्रश्न करने योग्य काल देखकर शिष्य गुरु महाराज से प्रश्न करे और गुरु महाराज सर्वज्ञ कथित आगम के अनुसार जो उत्तर फरमावें उसको हृदय में धारण करे । । १५ ॥ अस्सिं सुठिच्चा तिविहेण तायी, एएसु या संति णिरोह -माहु । ते एव-मक्खंति तिलोयदंसी, ण भुज्जमेयंति पमाय-संगं ।। १६ ॥ C अध्ययन १४ 0000000000 - Jain Education International - ३०१ - कठिन शब्दार्थ - सुठिच्चा - सम्यग् स्थित हो कर, तायी - छह काय जीवों का रक्षक, संतिशांति, णिरोहं - कर्मों का, निरोध, तिलोयदंसी - त्रिलोकदर्शी, पमायसंगं - प्रमाद का संग । भावार्थ - गुरु के उपदेश में अच्छी तरह निवास करता हुआ साधु मन, वचन और काया से प्राणियों की रक्षा करे इस प्रकार समिति गुप्ति के पालन से ही सर्वज्ञों ने शान्तिलाभ और कर्मों का क्षय होना बताया है । वे त्रिलोकदर्शी पुरुष कहते हैं कि साधु फिर कभी प्रमाद का सङ्ग न करे । 1 विवेचन - त्रिलोकदर्शी सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् ने केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को जानकर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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