Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 298
________________ 00000000000000...... हैं। कुछ कायर पुरुष उठाए हुए संयम भार में शिथिल हो जाते हैं यदि गुरु महाराज उन्हें प्रेरणा करे तो वे उन शिक्षा देने वाले को ही कठोर वचन कहने लगते हैं। ऐसे निह्नवों और अविनीतों को मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती हैं । Jain Education International विसोहियं ते अणुकाहयंते, जे आत्त भावेण वियागरेज्जा । अट्ठाणिए होइ बहुगुणाणं, जे णाणसंकाइ मुसं वदेज्जा ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - विसोहियं - अच्छी तरह से शोधित, अणुकाहयंते विपरीत प्ररूपणा करते हैं, आत्तभावेण - अपनी रुचि के अनुसार, वियागरेज्जा - विरुद्ध अर्थ करते हैं, बहुगुणाणं- बहुत गुणों का, अट्ठाणिए - अस्थान, णाणसंकाइ - ज्ञान में शंका करके, मुसं - मृषा । भावार्थ वीतराग मार्ग सब दोषों से रहित है तथापि अहंकार के कारण निह्नव आदि उसमें दोषारोपण करते हैं । जो पुरुष अपनी रुचि के अनुसार परम्परागत व्याख्यान से भिन्न व्याख्यान करता है तथा वीतराग के ज्ञान में शंका करके मिथ्या भाषण करता है वह उत्तम गुणों का भाजन नहीं होता है । जो थोड़ी-सी विद्या पढ़कर अपने आप को पंडित मानने लगता हैं और ज्ञान का . विवेचन घमण्ड करके केवली के कथित वचनों में शंका करते हुए मिथ्या भाषण करता है और कहता है कि 44 'यह आगम सर्वज्ञ का कहा हुआ हो ही नहीं सकता है अथवा इसका अर्थ दूसरा हैं मैं जैसा कहता हूँ उसी तरह अर्थ ठीक है । दूसरी तरह से नहीं ।" ऐसा कहने वाला मिथ्याप्रलापी है, वह निह्नव कहलाता । उसे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती । जे या वि पुट्ठा पलिउंचयंति, आयाण-मठ्ठे खलु वंचयंति । असाहुणी ते इह साहुमाणी, मायण्णि एसंति अणंत- घातं ।। ४ ।। कठिन शब्दार्थ पलिउंचयंति कपट करते हैं, आयाणमट्ठ आदान अर्थ (मोक्ष) से, वंचयंति - वंचित हो जाते हैं, साहुमाणी - साधु मानते हैं, मायण्णि मायावी, अणंतघातं- अणंत बार घात (जन्म मरण) को, एसंति प्राप्त करते हैं । भावार्थ - जो पुरुष पूछने पर अपने गुरु का नाम छिपाते हैं और दूसरे किसी बड़े आचार्य्य आदि का नाम बताते हैं वे मोक्ष से अपने को वञ्चित करते हैं । वे वस्तुतः साधु नहीं हैं तथापि अपने को साधु मानते हैं । वे मायावी जीव अनन्तबार संसार के दुःखों के पात्र होते हैं । विवेचन - जो जीव सत्य तत्त्व को नहीं जानते हैं और थोड़ासा ज्ञान प्राप्त कर बहुत अभिमान करते हैं तथा कोई यह पूछे कि आपने किसके पास पढ़ा है तो "ज्ञान के गर्व से अपने सच्चे गुरु का नाम छिपाकर दूसरे किसी प्रसिद्ध आचार्य का नाम लेते हैं अथवा "मैंने स्वयं इन शास्त्रों का अध्ययन - अध्ययन १३ - - For Personal & Private Use Only - २८५. - - www.jainelibrary.org

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