Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 302
________________ अध्ययन १३ २८९ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० णिकिंचणे भिक्खु सुलूह-जीवी, जे गारवं होइ सिलोग-गामी । आजीव-मेयं तु अबुझमाणो, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति ।। १२ ॥ कठिन शब्दार्थ - णिक्किंचणे - निष्किंचन, सुलूहजीवी - रूक्ष जीवी, सिलोगकामी - प्रशंसा चाहने वाला, आजीवं - आजीविका, अबुझमाणो. - नहीं जानता हुआ, विप्परियासुर्वेति - विपर्यास (जन्म मरण) को प्राप्त करता है । भावार्थ - जो पुरुष द्रव्य आदि न रखता हुआ भिक्षा से पेट भरता है और रूखा सूखा आहार खाकर जीता है परन्तु वह यदि अभिमान करता है और अपनी स्तुति की इच्छा करता है तो उसके ये पूर्वोक्त गुण उसकी जीविका के साधन हैं और वह अज्ञानी बार बार जन्म जरा और मरण आदि दुःखों को भोगता है । जे भासवं भिक्खु सुसाहुवादी, पडिहाणवं होइ विसारए वा । आगाढ-पण्णे सुविभावियप्पा, अण्णं जणं पण्णया परिहवेज्जा ।। १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - भासवं - भाषा के गुण दोष को जानने वाला, सुसाहुवादी - सुसंस्कृत भाषीमधुर भाषी, पडिहाणवं - प्रतिभा संपन्न, विसारए - विशारद, आगाटपप्णे - आगाढप्रज्ञ - प्रखर प्रज्ञावान्, सुभावियप्पा - श्रुत धर्म से भावित आत्मा, परिहवेजा - तिरस्कार करे । भावार्थ - जो साधु अच्छी तरह भाषा के गुण और दोषों को जानता है तथा मधुरभाषी बुद्धिमान् और शास्त्र के अर्थ करने में तथा श्रोता के अभिप्राय जानने में निपुण है एवं सत्य तत्व में जिसकी बुद्धि प्रवेश की हुई है और हृदय धर्म की वासना से वासित है वही सच्चा साधु है । परन्तु इतने गुणों से युक्त होकर भी जो इन गुणों के मेद से दूसरे पुरुष का तिरस्कार करता है वह विवेकी नहीं हैं । विवेचन - भाषा के गुण और दोषों को जानने वाला, मधुरभाषी, निपुण, बुद्धिमान् इत्यादि गुणों से युक्त भी साधु यदि अभिमान करता है, तो उसका साधुपना नि:सार हो जाता है। एवं ण से होइ समाहि-पत्ते, जे पण्णवं भिक्खु विउक्कसेज्जा । अहवाविजे लाभमयावलित्ते, अण्णं जणं खिंसइ बालपण्णे ।।१४ ॥ कठिन शब्दार्थ -समाहिपत्ते - समाधिप्राप्त, विउक्क-सेजा- गर्व करता है, लाभमयावलित्ते- . लाभ के मद से मत्त हो कर, खिंसइ - निन्दा करता है, बालपण्णे - बालप्रज्ञ-बचकानी बुद्धि वाला । .. भावार्थ - जो साधु बुद्धिमान् होकर भी अपनी बुद्धि का गर्व करता है अथवा जो लाभ के मद से मत्त होकर दूसरे की निन्दा करता है वह मूर्ख समाधि को प्राप्त नहीं करता है। - विवेचन - ज्ञान कषाय को नष्ट करने वाला होता है। किन्तु किन्हीं-किन्हीं की शान कषाय की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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