Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 309
________________ २९६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - सेहंपि - शैक्ष भी, अपुटुधम्म - अपुष्ट धर्म वाला, णिस्सारियं - निस्सार गच्छ से निकले हुए को देख कर, दियस्स - पक्षी के, छायं - बच्चे को, अपत्तजायं - पंख हीन, हरिसु - हर लेते हैं, पावधम्मा - पाप धर्म वाले (पाखण्डी)। __ भावार्थ - जैसे पक्षरहित पक्षी के बच्चे को मांसाहारी पक्षी हर लेते हैं इसी तरह धर्म में अनिपुण शिष्य को गच्छ से निकल कर अकेला विचरते हुए देखकर बहुत से पाषण्डी बहका कर धर्मभ्रष्ट कर देते हैं। विवेचन - परमतावलम्बी अपने विचारों के प्रति मोह के कारण, सच्चे साधक की हंसी-मजाक करते हैं, उटपटांग प्रश्न करते हैं-प्रलोभन देते हैं और कष्ट भी देते हैं; ऐसी कच्ची शिक्षा वाले साधक का डिग जाना-पतित हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि उसके पास उन विरोधी विचारों के परिमार्जक विचारों का सञ्चय नहीं होता है। अतः ऐसे भिक्षु के अकेले विचरने में, परमतावलम्बियों द्वारा उसका मर्माहत हो जाना सरल है। ओसाण-मिच्छे मणुए समाहिं, अणोसिएशंतकरि ति णच्चा। ओभासमाणे दवियस्स वित्तं, ण णिकसे बहिया आसुपण्णो ॥ ४ ॥ कठिन शब्दार्थ - ओसाणं - गुरुकुल में निवास, समाहिं - समाधि को, अणोसिए - गुरुकुल वास नहीं करता है, अंतकरि - कर्मों का नाश कर सकता, ण- नहीं, ओभासमाणे - स्वीकार करता हुआ, दवियस्स - मुक्ति जाने योग्य पुरुष के, वित्तं - वृत्त-आचरण को, णिक्कसे - निकले । भावार्थ - जो मुनि गुरुकुल में निवास नहीं करता है वह अपने कर्मों का नाश नहीं कर सकता है यह जान कर मुनि सदा गुरुकुल में निवास करे और समाधि की इच्छा रखे । वह मुक्ति जाने योग्य पुरुष के आचरण को स्वीकार करे और गच्छ से बाहर न जाय । जे ठाणओ य सयणासणे य, परक्कमे यावि सुसाहु जुत्ते । समिइसु गुत्तिसु य आयपण्णे, वियागरिते य पुढो वएज्जा ॥ ५ ॥ कठिन शब्दार्थ - ठाणओ - स्थान से, सयणासणे - शयन और आसन पर, परक्कमे - पराक्रम में, सुसाहुजुत्ते - सुसाधु से युक्त, समिइसु - समितियों में, गुत्तिसु - गुप्तियों में, आयपण्णे - आत्म प्रज्ञ, वियागरिते - उपदेश करता है । भावार्थ - गुरुकुल में निवास करने वाला साधु स्थान शयन आसन और पराक्रम के विषय में उत्तम साधु के समान आचरण करता है तथा वह समिति गुप्ति के विषय में पूर्णरूप से प्रवीण हो जाता है और दूसरे को भी उसका उपदेश करता है। विवेचन - गुरु महाराज की सेवा में रहता हुआ मुनि अपने गुरुदेव के आचरपा.को तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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