Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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याथातथ्य नामक तेरहवाँ अध्ययन
आहत्तहियं तु पवेयइस्सं, णाणप्पकारं पुरिसस्स जातं । सओ य धम्मं असओ असीलं, संतिं असंतिं करिस्सामि पाउं ।।१॥ .
कठिन शब्दार्थ - आहत्तहियं - याथातथ्य को, पवेयइस्सं- प्रकट करूँगा, णाणप्पकार - ज्ञान के प्रकार, पुरिसस्स - पुरुषों के, जातं - गुण को, सओ - साधुओ के, असओ - असाधुओं, असीलंकुशील (अधर्म) को, संति - शांति (मोक्ष) असंतिं- अशांति (संसार) को पाउं - प्रकट करने के लिए।
भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं कि - मैं सच्चा तत्त्व, और ज्ञान दर्शन चारित्र एवं जीवों के भले और बुरे गुण तथा साधुओं के शील और असाधुओं के कुशील और मोक्ष तथा बन्ध के रहस्य को प्रकट करूंगा।
विवेचन - बारहवें अध्ययन में अन्य मतावलम्बियों के मत का कथन कर उसका खण्डन किया गया है। वह खण्डन तत्त्व का यथार्थ कथन करने से होता है, इसलिए इस अध्ययन में याथातथ्य (सत्य) वचन का कथन किया जाता है।
जिस व्यक्ति में जैसा गुण होता है उस गुण को सज्जन पुरुषों के गुण, सच्चचारित्र और इससे विपरीत कुशील पुरुषों के दुर्गुण और इनके द्वारा होने वाले बन्ध और मोक्ष आदि तत्त्वों को यहाँ प्रकट किया जाएगा।
अहो य राओ य समुट्ठिएहि, तहागएहिं पडिलब्भ धम्मं । समाहि-माघात-मजोसयंता, सत्थारमेवं फरुसं वयंति ॥२॥
कठिन शब्दार्थ - समुट्ठिएहिं - अनुष्ठान में प्रवृत्त, तहागएहिं - तथागतों (तीर्थङ्करों) से, पडिलब्भ - प्राप्त कर, समाहिं - समाधि का, आघातं - आख्यात, अजोसयंता - सेवन नहीं करते हुए, सत्थारं - शास्ता (तीर्थङ्करों) को, एवं . ही, फरुसं - कठोर शब्दों को, वयंति - कहते हैं ।
भावार्थ - रात दिन अनुष्ठान करने में प्रवृत्त रहने वाले तीर्थंकरों से धर्म को पाकर भी तीर्थंकरोक्त समाधिमार्ग का सेवन न करते हुए जमालि आदि निह्नव तीर्थंकर की ही निन्दा करते हैं।
विवेचन - सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् संसार समुद्र को पार करने के उपाय रूप श्रुत और चारित्र रूप धर्म का कथन करते हैं उस धर्म को प्राप्त करके भी अशुभ कर्म के उदय से एवं मंद भाग्यता के कारण कितनेक पुरुष उस मोक्ष मार्ग का सेवन नहीं करते हैं। अपितु उससे विपरीत मार्ग की प्ररूपणा करते हैं। वे निह्नव कहलाते हैं। वे तीर्थंकर भगवान् के मार्ग को असत्य बताकर निंदा भी करते
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