Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
दूसरे की रक्षा करने में समर्थ हैं । जो सोच विचार कर धर्म को प्रकट करता है उस ज्योतिःस्वरूप मुनि के निकट सदा निवास करना चाहिये ।।
विवेचन - तीनों काल और तीनों लोकों को जानने वाले तीर्थंकर भगवान् अपनी और दूसरों की रक्षा करने में समर्थ होते हैं। वे पदार्थों के प्रकाशक होने के कारण चन्द्रमा और सूर्य के समान हैं। अपनी आत्मा का कल्याण चाहने वाले पुरुष को उनकी सेवा में रहना चाहिए । जैसा कि कहा है -
"णाणस्स होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धण्णा आवकहाए गुरुकुलवासं ण मुंचंति ॥"
अर्थात् - गुरु के पास निवास करने से जीव ज्ञान का भागी होता है और दर्शन तथा चारित्र में दृढ़ बनता है। इसलिए पुण्यात्मा पुरुष जीवन भर गुरुकुल वास को नहीं छोड़ते हैं। अतः शिष्य का कर्तव्य है कि वह सदा अपने गुरु की सेवा में रहे ।। १९ ॥
अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं, गइंच जो जाणइ.णागइंच। जो सासयं जाण असासयंच, जाइंच मरणं च जणोववायं ॥२०॥
कठिन शब्दार्थ - अत्ताण - आत्मा को, णागई - अनागति (मोक्ष) को, सासयं - शाश्वत, असासयं - अशाश्वत को, जाई - जन्म, मरणं - मृत्यु को, जणोववायं - प्राणियों के च्यवन व उपपात को ।
भावार्थ - जो अपने आत्मा को जानता है तथा लोक के स्वरूप को जानता है एवं जो शाश्वत यानी मोक्ष और अशाश्वत यानी संसार को जानता है तथा जो जन्म मरण और प्राणियों के नानांगतियों में जाना जानता है।
विवेचन - जो जीव-अजीव, लोक-अलोक, गति-आगति शाश्वत-अशाश्वत, जन्म-मरण आदि को जानता है वह परुष अनागति (जहाँ जाकर जीव वापिस लौटता नहीं उस अनागति अर्थात मोक्ष) को भी जानता है। अतः बुद्धिमान् पुरुष का कर्तव्य है कि वह अनागति (मोक्ष) के लिए पुरुषार्थ करें।
अहो वि सत्ताण विउट्टणंच, जो आसवं जाणइ संवरं च । ...." दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च, सो भासिउ-मरिहइ किरियवायं ॥२१॥
कठिन शब्दार्थ - अहो - अधोलोक, वि - अपि-भी विउट्टणं - विवर्तन (पीड़ा) को, दुक्खं - दुःख को, णिजरं - निर्जरा को, भासिउमरिहइ - प्रतिपादन कर सकता है, किरियवायं- क्रियावाद का।
भावार्थ - नरकादि गतियों में जीवों की नाना प्रकार की पीडा को जो जानता है तथा जो आस्रव, | संवर, दुःख और निर्जरा को जानता है वही ठीक ठीक क्रियावाद को बता सकता है ।
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