Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन १२
को कल्याणमार्ग की शिक्षा देते हैं । वे कहते हैं कि - ज्यों ज्यों मिथ्यात्व बढ़ता है त्यों त्यों संसार मजबूत होता जाता है जिस संसार में प्रजा निवास करती हैं।
विवेचन - जिस प्रकार योग्य स्थान पर रहे हुए पदार्थ को आंख आदि इन्द्रियाँ जानती एवं प्रकाशित करती हैं। इसी तरह तीर्थंकर और गणधर आदि भी लोक के पदार्थों का यथार्थ स्वरूप प्रकाशित करते हैं । इसलिए वे लोक में सबसे प्रधान हैं। उनका फरमाना है कि जीव अनादि काल से मिथ्यात्व आदि के कारण संसार में परिभ्रमण करता रहा है, जब तक मिथ्यात्व नहीं छूटता है, तब तक संसार की वृद्धि होती रहती है अत: सुज्ञ प्राणियों का कर्त्तव्य है कि वे मिथ्यात्व आदि सभी पापों का सर्वथा त्याग कर दे ।। १२ ॥
जे रक्खसा वा जमलोइया वा, जे वा सुरा गंधव्वा य काया ।
आगास- गामी य पुढो - सिया जे, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेंति ।। १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - रक्खसा राक्षस, जमलोइया - यमलोक के देव, सुरा - देव, गंधव्वा गंधर्व, आगासगामी - आकाशगामी, पुढोसिया - पृथ्वी के आश्रित, विप्परियासुर्वेति- विपर्यास (जन्म मरण) को प्राप्त होते हैं ।
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भावार्थ - राक्षस, यमपुरवासी, देवता, गन्धर्व, आकाशगामी तथा पृथिवी पर रहने वाले प्राणी सभी बार बार भिन्न भिन्न गतियों में भ्रमण करते हैं ।
महु ओहं सलिलं अपारगं, जाणाहि णं भवगहणं दुमोक्खं ।
जंसि विसण्णा विसयंगणाहिं, दुहओऽवि लोयं अणुसंचरंति ॥ १४ ॥
कठिन शब्दार्थ - ओघं- ओघ - प्रवाह सलिलं सलिल - पानी - स्वयंभूरमण समुद्र के जल के समान, अपारगं - अपार, भवगहणं गहन संसार को, दुमोक्खं दुर्मोक्ष, विसयंगणाहिं विषय और स्त्रियों में, विसण्णा - आसक्त, अणुसंचरंति- अणुसंचरण (भ्रमण) करते हैं ।
भावार्थ - इस संसार को जिनेश्वर देव ने स्वयम्भू रमण समुद्र के समान दुस्तर कहा है अत: इस गहन संसार को जुन दुर्मोक्ष समझो । विषय तथा स्त्री में आसक्त जीव इस जगत् में बार बार स्थावर और जङ्गम जातियों में भ्रमण करते रहते हैं ।
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ण कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा । मेधाविणो लोभमयावतीता, संतोसिणो णो पकरेंति पावं ।। १५॥ कठिन शब्दार्थ - कम्मुणा पापकर्म से, खवेंति लोभ और मद से दूर, संतोसिणो- संतोषी ।
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क्षय (क्षीण) करते, लोभमयावतीता
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