Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 287
________________ २७४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 किन्तु भ्रम में पड़े हुए हैं । वे स्वयं अज्ञानी हैं और अज्ञानी शिष्यों को उपदेश करते हैं । वे वस्तु तत्त्व का विचार न करके मिथ्या भाषण करते हैं । विवेचन - इन चार वादियों में से पहले अज्ञानवादी का कथन किया जाता है। क्योंकि वे विपरीत भाषी हैं। वे अपने को कुशल मानते हुए भी अज्ञान ही कल्याण का साधन है।' यह कथन असम्बद्ध प्रलाप है इसी कारण वे स्वयं भ्रम में पड़े हुए हैं। वे स्वयं अज्ञानी होते हुए अपने शिष्यों को भी अज्ञान का उपदेश देते हैं। जीव अनादि काल से अज्ञानी हैं, इसलिए उसे अज्ञान का उपदेश देने की आवश्यकता ही नहीं है। ये लोग अज्ञान पक्ष का आश्रय लेकर बिना विचारे बोलने के कारण सदा झूठ बोलते हैं। क्योंकि ज्ञान होने पर ही विचार कर बोला जाता है और सत्य भाषण विचार पर ही निर्भर रहता है। अतः ज्ञान को स्वीकार न करने के कारण विचार कर नहीं बोलते हैं और विचार कर न बोलने के कारण वे मिथ्यावादी हैं यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है।। २॥ सच्चं असच्चं इति चिंतयंता, असाहु साहुत्ति उदाहरंता । . . जेमे जणा वेणइया अणेगे, पुट्ठा वि भावं विणइंसु णाम ॥३॥ ... • कठिन शब्दार्थ - चिंतयंता - चिंतन करते हुए, असाहु - असाधु, साहु - साधु, उदाहरंता - बताते हुए, वेणइया - विनयवादी, पुट्ठा - पूछने पर, विणइंसु- विनय को । भावार्थ - सत्य को असत्य तथा असाधु को साधु बताने वाले विनयवादी पूछने पर केवल विनय को ही मोक्ष का मार्ग कहते हैं । विवेचन - विनयवादी अर्थात् जिनमें भक्ति का अतिरेक हो गया हो-ऐसे व्यक्ति । यहां तक कि वे भक्ति को मुक्ति से भी बढ़कर मान लेते हैं-साधन को ही साध्य मान लेते हैं । देवता, शासक, यति, जाति, वृद्ध, अधर्म, माता और पिता में से किसी में अपने इष्ट का आरोपण करके, उनके प्रति मन, वचन, काया और दान अर्थात् सर्वस्व-समर्पण का नाम है विनय । कोई चारों के योग में विनय मानते है तो कोई एक में भी । स्त्रियों के लिये पति को ही परमाराध्य बताने वाले भी इसी कोटि में आते हैं और प्राणी मात्र में अपने आराध्य के दर्शन करके, उन्हें नमस्कार करने वाले भी विनयवादी ही है। - सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र मोक्ष का मार्ग हैं। उसको वे असत्य बताते हैं और विनय को ही स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बताते हैं। इसलिए ये मिथ्यावादी हैं। . अणोवसंखा इति ते उदाहु, अढे स ओभासइ अम्ह एवं । लवावसंकीय अणागएहि, णो किरिय-माहंसु अकिरियवाई ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - अणोवसंखा - अज्ञानवश, अद्वे - अर्थ, ओभासइ - अवभाषित होता है, लबावसकी - कर्मबंध की शंका करने वाले, अणागएहिं - भविष्य में । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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