Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
भावार्थ - वस्तु स्वरूप को न जानने वाले वे अक्रियावादी नाना प्रकार के शास्त्रों का कथन करते हैं, जिन मिथ्या शास्त्रों का आश्रय लेकर बहुत मनुष्य अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करते हैं ।
विवेचन - इस गाथा में भी अक्रियावादी (चार्वाक- नास्तिक) और बौद्ध मत का खण्डन किया गया है। उनकी मान्यता के अनुसार आत्मा का अस्तित्त्व है ही नहीं अथवा आत्मा क्षणस्थायी है तो फिर जप तप आदि क्रिया का फल बताना केवल लोगों को दिखावा मात्र अथवा ठगना मात्र है जैसा कि वे कहते हैं।
"दानेन महाभोगाश्च, देहिमां सरगतिश्च शीलेन। भावनया च विमुक्तिस्तपसा सर्वाणि सिध्यन्ति ॥"
अर्थात् - दान देने से महान् भोग मिलते हैं और शील पालन करने से देवगति प्राप्त होती है और शुभ भावना करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है तथा तप करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं। .
जब उपरोक्त मतावलम्बियों के मत में आत्मा है ही नहीं तब फिर इन फलों की प्राप्ति किसको होगी अतः यह उनका कथन केवल प्रलाप मात्र है।
णाइच्चो उएइण अस्थमेइ, ण चंदिमा वडा हायइ वा । सलिला ण संदंति ण वंति वाया, वंझो णियतो कसिणेहुलोए ॥७॥
कठिन शब्दार्थ - आइच्चो - आदित्य-सूर्य, उएइ - उगता है, अत्थमेइ - अस्त होता है, बंदिमा - चन्द्रमा, सलिला - नदी (पानी) संदंति - बहती है, वाया - वायु, वंति - चलती है, बंझो - वन्ध्य (शून्य) णियतो - नियत ।
भावार्थ - सर्वशून्यतावादी कहते हैं कि सूर्य उगता नहीं और अस्त भी नहीं होता है तथा चन्द्रमा न बढ़ता है और न घटता है एवं पानी बहता नहीं है और हवा भी चलती नहीं है किन्तु यह समस्त विश्व झठा और अभावरूप है।
विवेचन - सर्वशून्यतावादी के मत में सूर्य का उदय और अस्त तथा चन्द्रमा का कृष्ण पक्ष में घटना और शुक्ल पक्ष में बढ़ना, पानी का बहना, हवा का चलना आदि कुछ नहीं है किन्तु यह समस्त विश्व झूठा और काल्पनिक हैं अर्थात् इस जगत् में जो वस्तु उपलब्ध होती है। वह सब माया, स्वप्न और इन्द्रजाल के समान मिथ्या है।
जहा हि अंधे सह जोइणा वि, रूवाइं णो पस्सइ हीण-णेत्ते । संतं पि ते एवमकिरियवाई, किरियं ण पस्संति णिरुद्ध-पण्णा ॥८॥
कठिन शब्दार्थ - जोइणा - ज्योति (प्रकाश) सह - साथ, परस्सइ - देखता है, हीणणेत्ते - नेत्रहीन होने के कारण, संतं पि - विद्यमान भी, णिरुद्धपण्णा - निरुद्धप्रज्ञ-बुद्धिहीन ।
भावार्थ - जैसे अन्ध मनुष्य दीपक के साथ रहता हुआ भी घटपटादि पदार्थों को नहीं देख
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