Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ११
२७१ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० है। उन्होंने जगत् के सब जीवों को शान्ति का उपदेश दिया और स्वयं ने भी शान्ति का आचरण किया था इसलिए तीर्थङ्करों का आधार शान्ति है।। ३६ ॥
नोट - इस गाथा का उद्धरण दे कर जो यह कहते हैं कि जैन शास्त्रों में भी बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बुद्ध भगवान् का वर्णन आता है। उनका कथन आगमानुकूल नहीं है क्योंकि यहाँ 'बुद्ध' का अर्थ तीर्थंकर भगवंत है।
अह णं वयमावण्णं, फासा उच्चावया फुसा । ण तेसु विणिहण्णेग्जा, वारण वा महागिरी ।। ३७॥
कठिन शब्दार्थ - वयं - व्रत, आवण्णं - ग्रहण किये हुए को, फासा फुसा - परीषह उपसर्ग स्पर्श कर, उच्चावया - उच्चावच - नाना प्रकार के, विणिहण्णेजा - विचलित हो, वाएण- वायु से, महागिरी - महान् पर्वत
1 1 - भावार्थ - व्रत ग्रहण किये हुए साधु को यदि नाना प्रकार के परीषह और उपसर्ग स्पर्श करें तो साधु अपने संयम से विचलित न हो जैसे पवन से महान् पर्वत डिगता नहीं है ।
विवेचन - जैसे मेरु पर्वत महान् वायु से भी विचलित नहीं होता है, उसी प्रकार मुनि को भी परीषह उपसर्गों के आने पर संयम मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए।। ३७ ॥
संवुडे से महापण्णे, धीरे दत्तेसणं चरे । णिव्वुडे कालमाकंखी, एवं केवलिणो मयं॥ ३८॥॥त्ति बेमि॥
कठिन शब्दार्थ - णिव्वुडे - निर्वृत्तः-शांत रहता हुआ, कालं - काल (मृत्यु) की, आकंखी - आकांक्षा करे, केवलिणो - केवली का, मयं - मत है ।।
भावार्थ - आस्रव द्वारों को निरोध किया हुआ महा बुद्धिमान् धीर वह साधु दूसरे से दिया हुआ ही आहार आदि ग्रहण करे । तथा शान्त रह कर मरणकाल की इच्छा करे, यही केवली का मत है।
- इति ब्रवीमि - - अर्थात् सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारबिन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। मैं अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ।
विवेचन - धर्म, समाधि और मार्ग इन तीनों अध्ययन में, धर्म, समाधि और मार्ग की परिभाषा बताते हुए दो बातों पर अधिक जोर दिया है-अहिंसा और अपरिग्रह । इसमें भी अहिंसा की बात बहुत
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